बायें हाथ में ले
अपना कटा हुआ दाहिना हाथ
बैठा हूँ मैं घर के उस कोने में
जिसे तुम्हारी मौत
कितनी सफ़ाई से ख़ाली कर गयी है।

अब यहाँ शाम
बिना पैर धोये आती है
और किसी बुझी भट्टी में
सोये हुए कुत्ते की तरह
बदन झटककर चली जाती है।
सितार पर रात-भर रेंगता रहता है मकड़ा
पर कोई भी तार झंकृत नहीं होता
सतब्ध है आयु—
एक फेंका हुआ पत्थर जैसे
आकाश में ही रुक गया हो।

एक द्वार की तरह
मैं रेगिस्तान में खड़ा हूँ
एक टूटी दीवार का अकेलापन भी
अब कहाँ है जो कुछ रोक सके।
गर्म हवाएँ सनसनाती हुई
मुझमें से गुज़र जाती हैं।
उन्नीस वर्ष
उन्नीस शब्दों का श्लोक तो नहीं
जो कण्ठस्थ हो जाये
जिसे जपकर मैं उबर जाऊँ?

चारों ओर हरहराती है बाढ़
कमर तक पानी में
पीठ पर सन्दूक़ लादे खड़ा मैं
देख रहा हूँ सामने से
बहता हुआ सारा घर
हिलती हुई छत पर
कुछ सहमे, कुछ निडर बैठे
अपने दो खिलौने।
भविष्य सिकोड़ता जा रहा है मेरी पीठ
और झुकाता जा रहा है मेरे कन्धे
छाती पहाड़ बनाते-बनाते
मैं आदमी से नाव बनता जा रहा हूँ।

बायें हाथ में ले
अपना कटा हुआ दाहिना हाथ
लिखता हूँ मैं ईश्वर का नाम
क्योंकि वही सबसे छोटा है
क्योंकि उसी को मैं नहीं जानता
क्योंकि वही मेरा शत्रु है
उसे ही मैं अपना नहीं मानता
लेकिन बन जाता है एक नक़्शा
जिसमें अंकित करता हूँ अपने पड़ाव
अपनी गति, अपने ठहराव।

बायें हाथ में ले
अपना कटा हुआ दाहिना हाथ
फेंकता हूँ पत्थर इस सड़े-गले समाज पर
क्योंकि वही मेरे पास खड़ा है
क्योंकि वही दीखता बड़ा है
क्योंकि वही मेरा मित्र है
वही दुःख-सा गहरे गड़ा है
लेकिन गिरता है एक फूल
जिसे चढ़ाता हूँ मैं
अपनी और तुम्हारी हर भूल पर।

‘देह का धर्म है
सहना, फिर न रहना’
क्या इतना ही था
तुम्हें मुझसे कहना।
मैं जानता हूँ मुझे भी एक दिन मृत्यु
इसी तरह अकेला पाकर दबोच लेगी।
इसी तरह कोई दूसरा कहेगा
हर मौत दिखाती है जीवन को नयी राह।

घर के इसी ख़ाली कोने में
छोड़ गयी हो तुम एक शिलालेख जो मैं हूँ;
नहीं जो तुम्हारी मृत्यु है।
जो तुम्हारी मृत्यु है
वही मैं हूँ।
वही मैं हूँ…
बायें हाथ में ले
अपना कटा हुआ दाहिना हाथ
उठाता हूँ मैं इस शिलालेख को
जिस पर शाम बिना पैर धोये
आकर बैठ गयी है।

Book by Sarveshwar Dayal Saxena:

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना मूलतः कवि एवं साहित्यकार थे, पर जब उन्होंने दिनमान का कार्यभार संभाला तब समकालीन पत्रकारिता के समक्ष उपस्थित चुनौतियों को समझा और सामाजिक चेतना जगाने में अपना अनुकरणीय योगदान दिया। सर्वेश्वर मानते थे कि जिस देश के पास समृद्ध बाल साहित्य नहीं है, उसका भविष्य उज्ज्वल नहीं रह सकता।