1
उसने उस लड़की के साथ
आग के चारों ओर सात फेरे तो लगा लिए हैं
लेकिन वह उसके भीतर जमी बर्फ़ नहीं पिघला सका है
बारात में घोड़ों के नीचे आ जाने से
उसने उसे बचाया था
लेकिन अब बार-बार उस लड़की को लगता है
वह जंगली भैंसों से घिरी है
और बचाने वाला कोई नहीं है
वह भी नहीं
जिसने पहली बार उसे कोई फूल दिया था
जिसे वह गुलाब मानती रही
अब भी वह फूल देता है हर शाम
पर सुगन्ध अब उस तरह पीछा नहीं करती
और हर फूल अब गुलाब नहीं होता
भरी-माँग-बिन्दी-सिन्दूर
चूड़ियाँ और मंगलसूत्र…
पर वह क्या करे कि अब भी उसे
साईकिल पर लहराते स्कूली दिन याद आते हैं
नहीं अब वह और नहीं ढूँढेगी
धुएँ के बादलों के बीच अंगारे
पति की लँगोट राष्ट्रीय ध्वज की तरह
अब और नहीं लहराएगी…
2
पहले उसके साथ वह काँटों पर भी सो जाती थी
अब फूलों पर भी उसे नींद नहीं आती है
उसका पति जब और-और औरतों के नाम
बड़बड़ाता है नींद में
वह जागती सुनती रहती है सब
और बड़बड़ाहट को सुबह तक बुनती रहती है
उसका पति सपने में
बहुत दिन हुए उसने कोई सपना नहीं देखा
सुबह सुनाने लायक़ मखमली घास का हरा सपना
गर्मियों में भागते ख़रगोश
चिड़ियों की उड़ान
ढलान पर साईकिल से उतरती एक लड़की
उसकी खुली आँखों में
बेजान तितलियाँ उसकी कविता किताबों में
अक्षरों और कविताओं की तरह
उसकी गुनगुनाती सुबह के लिए
किसी गीत की कोई उखड़ी पंक्ति नहीं
सब कैसे कभी-कभी पीछे छूट जाता है
तितलियाँ पकड़ना नीम से दातून
और बरगद का झूला झूलना भी उनमें से है
अपने मायके में स्कूली कपड़ों के साथ बक्से में बन्द
एक लड़की कितनी ख़ुश होती है
जब वह लौटती है बारह मास बाद
अपने भाई की शादी में
और वह बक्सा खोलती है
कविता किताबों में बन्द तितलियों को
बेवजह ज़िन्दा करती हुई
3
उसे बग़ैर कोई कारण बताए वह देर से घर लौटता है
शाम होते ही नुक्कड़ के वाहनों की ओर
टकटकी बाँध उसकी आँखों में कोई तस्वीर नहीं
पूरे कपड़े पहन सो जाता है वह
गन्दे कीचड़ सने पैरों के साथ
और सुबह चादर के धब्बों पर सवाल करता है
पिछवाड़े के दरवाज़े को खुला देख
फ़ोन पर मर्दाना आवाज़ से बातें करते देख
ईर्ष्यालु और शंकालु वह
आसमान सर पर उठा लेता है
जबकि उसकी मनपसन्द कमीज़ का बटन टूटा है
या वह आज भी धुली नहीं है
बातें तरह-तरह की घरेलू बातें
उसके मुँह में ही रह जाती हैं
जब वह टी० वी० पर ख़बर सुनने लगता है
उसका बटोरा हुआ साहस बेगम अख़्तर की ग़ज़लों में
शाम की उदासी के साथ घुलने लगता है
रात जो रातरानी थी उसके लिए
सुबह सिर्फ़ चारपाई रह जाती है
उसका जन्मदिन उसे याद नहीं
उम्र याद है
दस-बीस साल पहले की साड़ी पहने देख उसे
वह झूठ बोलता है कि आज भी तुम वैसी ही हो
पर वह ख़ुश होती है और बहुत ख़ूबसूरत होता है वह
उस वक़्त
अपने गंजाते सिर, मुटाते पेट
और चिपचिपाते पसीने के बावजूद…।
'माँ: छः कविताएँ - राजेन्द्र उपाध्याय'