पत्थर का पानी पर आरोप है
कि सभ्यता के प्रारम्भ से लेकर आज तक
वह केवल खेलता रहा है काया से
अन्तर्मन का स्पर्श उसके बस की बात नहीं।
पानी को भी खेद है कि
सहस्त्र शताब्दियों तक संग-संग
अटखेलियाँ करने के बावजूद
पत्थर ने पिघलकर पानी होना नहीं सीखा।
परन्तु आरोप-प्रत्यारोप के उपरान्त भी
विषाद में जब भी जल, लय भूला है
पत्थरों ने मित्रवत् उसका मार्ग रोका है
शापित पत्थरों को जीवन्त करके
जल ने भी जब-तब अपना धर्म निभाया है।
प्रारब्ध में जल की जितनी भूमिका है
उतनी ही उत्सुकता से पत्थर ने
संस्कार रचने में हाथ बँटाया है।
ये पत्थर और पानी की मैत्री है कि
मैंने जब भी उठाये दु:खों के पहाड़
तुम्हारे नयनों के जल ने ही
सदैव मुझे डूबने से बचाया है।