हम अपने आप को
अपने चेहरे से नहीं पहचानते
नहीं बुलाते ख़ुद को हम
अपने नाम से
घर के बाहर लगी नेम प्लेट
दूसरों के लिए है
दूसरों के लिए छपवाते हैं हम
विज़िटिंग कार्ड
आइना देखते हैं
जाने से पहले
दूसरों के सामने
चेहरा जितना भी साफ़ हो
हम जानते हैं
बदसूरती का हाल
हमारे ख़्वाब और ख़्याल
जिनमें टूटतीं सीमाएँ
सम्भव और असम्भव की
समस्त कल्पनाएँ
लेतीं रूप और आकृति
दिखती हैं हमें
प्वाइंट ऑफ़ व्यू से, यानी
इनमें हम तो होते हैं
हमारी पहचान नहीं होती

महज़ एहसास होता है
शक़्ल-ओ-नाम से आज़ाद
जैसे रूह भटकती हो
अचानक मौत के बाद
मगर एक दर्द होता है
और थोड़ा डर भी लगता है
वो चेहरा ख़्वाब में देखा
ज़रा सा याद रहता है

हमारा नाम लेकर फिर
कोई झंझोर देता है
वो ख़्वाबों की असल दुनिया
अचानक तोड़ देता है
और हम फिर जाग जाते हैं
स्वयं से भाग जाते हैं
आइना देखते हैं और
वो सब कुछ भूल जाते हैं
हमारी चाह, हमारे भाव
अधूरा इश्क़, गहरे घाव
वही सब कुछ जो असली है

बाकी?
हमारी पहचान नकली है!