ये पहली नज़्म
तेरे हर्फ़ जैसे मौतबर होंठों की ख़ातिर है
तेरी बे-रब्त साँसों के लिए है
तेरी आँखों की ख़ातिर है
ये पहली नज़्म
उन जज़्बों की ख़ातिर है
जिन्हें छींटा पड़ी मिट्टी से मैं ताबीर करता हूँ
जिन्हें मैं रात में इक इक नफ़स
ज़ंजीर करता हूँ
जिन्हें मैं अपनी शिद्दत से
सदा ए इंतिहा ए हुस्न ए आलम-गीर करता हूँ
ये पहली नज़्म
मेरे ख़्वाब की ख़ातिर है
जिस तक तेरे क़दमों की रसाई होने वाली है
ये पहली नज़्म
उस शब के लिए है
जो मेरी ज़िन्दगी भर की कमाई होने वाली है…