ग्रीन पार्क मेट्रो स्टेशन पर भी मोहन को लगा कि उसे उतर जाना चाहिए और वापस हो लेना चाहिए। पिछले दो स्टेशनों से जब प्लेटफ़ॉर्म आता, भीतर इसी तरह की सुगबुगाहट होती जो दरवाज़ा बंद होते समय थोड़ी और तीव्र हो जाती थी। लेकिन इस बार स्टॉपेज़ पर प्रॉडक्शन हाऊस वाले का फोन आ गया कि डायरेक्टर साहब धारावाहिक की अगली कड़ी जल्दी भेजने को बोल रहे हैं और यह भी कि जो बातें उन्होनें कही थीं, उसे कहानी में इस बार ज़रूर जोड़ें। मोहन ने सुन भर लिया, हामी भरी और फ़ोन को साइड बैग की पॉकेट में डाल दिया।
डायरेक्टर साहब चाहते थे कि सीरियल में कुछ मसाला हो। कोई अतरंगी बात जो ध्यान पकड़े जैसे कि लीड हीरोइन का एक्सीडेंट हो जाये और वो हीरो को शारीरिक सुख देने में असमर्थ हो जाये और हीरो घर-बाहर या दफ़्तर की औरतों में दिलचस्पी लेनी शुरू कर दे। एक और सूरत यह थी कि हीरोइन की मौत हो जाये पर वो रहस्यमय तरीक़े से नायक के साथ अपना मिलन करती रहे। “थिंक एबाऊट दिज , प्रोफ़ेसर सा’ब, कुछ बेमेल दिखाओ, नॉर्मल इज़ नेवर इंट्रेस्टिंग!” – उन्होनें कहा था।
हौज़ ख़ास स्टेशन आ गया था।
मोहन ने शीशे से बाहर देखा। हल्की बूँदा-बाँदी अब भी हो रही थी। नीचे सड़क पर गाड़ियों की लाइट से गीले बिलबोर्ड चमक जाते थे। डीटीसी की लाल, नारंगी और हरी बसों के बीच ऑटो, बाइक और कार वालों का हुजूम था, जो उस धरने या जुलूस की तरह आगे बढ़ता था जिसे पुलिस या उसकी बैरिकेड थोड़ी-थोड़ी देर पर रोकती रहती है। मेट्रो की रफ़्तार बढ़ने पर शीशे पर पड़ने वाला प्रकाश एक लम्बी मोटी रेखा के जैसे साथ चलने लगता था। कोच के अंदर लोगों की भीड़ बढ़ गई थी। अगर अनुमान करें तो इन लम्बे कोचों में कुछेक सौ लोग भरे होंगे। दफ़्तर से लौटे साहब, काम से लौटते लोग, कोचिंग-क्लास से लौटते युवा और घूम-फिर कर लौट रहे जोड़े। अलग-अलग रंग-विन्यास, पहनावे और चेहरे के भाव।
भीड़ में देखते हुए उसे लगा कि अगर लाली का पति इसी भीड़ में हुआ तो वो उससे कैसे मिलेगा? क्या वो उसे पहचान लेगा? हालाँकि दोनों एक बार ही मिले हैं पर ध्यान आया कि उस दिन भी उसने यही नीला कुर्ता डाला हुआ था। उसने लपककर मोबाइल वापस निकाला और चेक किया कि आज बुधवार ही तो है। लाली ने बताया था कि इधर दो हफ़्ते तक सोम-बुध-शुक्रवार को उसके पति की नाईट-ड्यूटी रहेगी। लाली से मिले दो हफ़्ते से ज़्यादा का वक़्त नहीं हुआ था। उसने याद करने की कोशिश कि किचेन के पास टंगे विश्वविद्यालय के कैलेंडर में पिछले किस दिन को उसने स्केच से गोला बनाकर घेरा है जैसा कि हर बार वह लाली से मिलकर लौटने के बाद कर दिया करता है। वह तो याद नहीं आया पर एक जुड़ा वाक़या ध्यान हो आया और वो मुस्कुरा उठा। डिनर पर घर आये प्रोफ़ेसर कुसुमलता पाणिग्रही ने पूछा था कि ये रंगे दिन क्या कोई ख़ास दिन हैं तो उसने झट से कहा कि ये इस साल यूरो कप फ़ुटबॉल में मेरी फ़ेवरेट टीम मैनचेस्टर यूनाइटेड के मैच की तारीख़ें हैं।
साकेत स्टेशन आ गया था।
मोहन गेट नंबर तीन से बाहर आ गया। यहाँ से पुष्प विहार पास है। ऑटो वाले चालीस रुपये लेते है या पचास और कभी रात बढ़ गई तो सत्तर रुपये। हल्की बारिश के बाद चल रही हवा अच्छी लग रही थी सो वह पैदल ही निकल पड़ा। इंद्रप्रस्थ गैस स्टेशन और उसके सामने शनि मंदिर से अंदर। ये दिल्ली की हाई-सोसाइटी के पीछे बन आई वो कॉलोनियाँ हैं जिन्हें नक्शे पर अवैध कहा जाता है और जहाँ छोटे दुकानदार, फ़ैक्ट्रियों में काम करने वाले सुपरवाइज़र या आईटीआई और डिप्लोमा की पढ़ाई करने वाले लड़कों के परिवार रहते हैं। लाली का पति भी एक सिक्यूरिटी एजेंसी में सुपरवाइज़र है।
गली में घुसते समय एक क्षण मोहन को हुआ कि लाली को फ़ोन कर ले। हो सकता है उसके पति ने आज छुट्टी ले ली हो या लाली खुद नहीं हो, कहीं गई हो – कहीं भी घर से बाहर – पर मोहन को कुछ भी हो सकने का रोमांच अच्छा लग रहा था और वह आगे बढ़ता चला गया।
आइरन गेट खोलकर जाली से झाँकते हुए लाली हँस पड़ी।
मोहन तपाक से अंदर आ गया।
“हमको लग रहा था कि तुम आज आओगे।” – मुस्कुराहट उसके लाल-गोरे चेहरे पर फैलती चली गई।
“कैसे?”
“अरे, लगा हमको” – बिहारी ठाट लिए लय भरी खड़ी हिन्दी और हाथ हिलाकर बात करने का अंदाज़।
“हाथ में क्या लगा है?” मोहन ने पूछा।
“बेसन। पकौड़े बनाने जा रही थी।”
“सच में? मैं नहीं आता तो अकेले पकौड़े खाती?”
“आज बहुत दिनों बाद बारिश हुआ तो हमको लगा कि हो सकता है गीली माटी, ठंडी हवा और सुहाना मौसम तुम्हें मेरी याद दिला दे” – लाली ने एक आँख दबाते हुए कहा फिर ज़रा अंतराल लेकर बोली – “तुम्हें याद है गर्मी की छुट्टी में तुम शहर से आते थे तो आँधी-पानी आने पर गाँव के बच्चों के साथ तुम आम के टिकोरे चुनने नदी किनारे बगीचों में जाया करते थे। हम भी रहते थे उसमें।”
“हाँ , याद है।” मोहन मुस्कुरा उठा और लाली के पास जाता गया।
“तुम्हें कैसे लगा कि मैं आज आऊँगा” – उसने सटते हुए पूछा।
“क्यूंकि हम तुम्हारे फ़ेवरेट हैं, आजकल” – उसने मोहन की आँखों में देखते हुए कहा।
“अच्छा जी, आजकल बहुत रंगीन मिज़ाज चल रहा है आपका”, मोहन ने दोनों हाथों का घेरा बनाकर कमर के ऊपर से लाली को कस लिया और अपने सीने से उसकी छाती दबा दी।
कुछेक पल तक दोनों स्थिर रहे फिर उसके सर से अपनी ठुड्डी हटाते हुए लाली ने कहा – “हटो, बेसन लग जायेगा।”
मोहन ने पकड़ ढील दी और वह उससे मुक्त होती हुई किचेन की तरफ़ जाने लगी।
“चाय पहले लोगे या बाद में?” – उसने बिना पलटे ही पूछा।
“कभी भी।”
मोहन ने लकड़ी के तीन सीटर सोफ़े से अपना बैग उठाकर पास की मेज़ पर रख दिया। कमरे में रोशनी खूब नहीं थी। आमने-सामने की दीवारों पर दो एलईडी बल्ब जल रहे थे जिनके आस-पास बरसाती कीड़ों का जमावड़ा लग रहा था। बैग के पास ही एक फ़ोटो फ़्रेम पड़ा था जिसके नीचे – ‘रंजीत संग उषा’ – लिखा था। उषा, लाली का स्कूल का नाम था। थोड़ी देर तक मोहन उसे उठाकर देखता रहा फिर पलटकर दूसरी ओर रख दिया। उसके चेहरे पर प्रतिक्रिया का कोई भाव नहीं था। बहुत भीतर एक अकुलाहट थी और उन्माद था।
लाली चाय ले आई थी।
“अपने लिए नहीं बनाया?”
“नहीं, मैं रुक के लूँगी।”
“आओ ना नहा के फटाफट” – मोहन ने खड़े-खड़े चाय की एक घूँट ली और बैठते हुए बोला।
“फिर कोई ड्रेस लाये हो मेरे लिए?” लाली ने मुड़ते हुए पूछा।
“नहीं। वैसे ड्रेस कितनी देर रहता ही है तुम्हारे ऊपर!” – मोहन ने शरारत से कहा।
लाली ने मुड़कर देखा और दोनों हँसने लगे।
“मैं आती हूँ पकौड़े ले के।” मोहन जाती हुई लाली के पुष्ठ पार्श्व को देखता रहा।
“बाद में खाएँगे ना, आ जाओ नहा के अभी।”
“आज तो हम नहीं नहायेंगे” – लाली ने किचन में घुसते हुआ हँसकर कहा।
मोहन ने बैठे-बैठे चाय ख़त्म की और फिर वहीं सोफ़े पर लेट गया। कूलर तेज़ आवाज़ कर रहा था। उसने उठकर कूलर बंद कर दिया और पंखा चला लिया। दो कमरों का छोटा-सा घर था पर चीज़ें व्यवस्थित थीं। किचन की ओर प्लास्टिक की तीन कुर्सियों के साथ एक गोलाकार मेज़ डायनिंग के लिए लगा दी गई थी। दीवार में एक छोटा-सा आलमीरा बना था जिसमें एक के ऊपर एक तीन किताबें, एक बॉडी लोशन का डब्बा, सुई-धागे का एक बंडल और कुछ और सामान रखे थे। किचेन के बग़ल में दूसरा कमरा बेडरूम का था।
मोहन पिछली बार लाली के लिए डिफ़ेन्स कॉलोनी आऊटलेट से डिज़ाइनर फाल्गुनी शेन पीकॉक की वन पीस ड्रेस ले आया था। महँगी थी पर मोहन को रंग अच्छा लगा था। चंपई। लाली किसी फैशन डिज़ाइनर का नाम नहीं जानती। वह और भी बहुत सी चीज़ें नहीं जानती – जैसे ग्लोबल वार्मिंग या इज़राइल-फिलिस्तीन या मार्क्सवाद। उसे कहानियाँ पसंद है। सहवास के अक्सर बाद इसी सोफ़े पर बाँहों में दबाये हुए लाली को मोहन ने कई कहानियाँ सुनाई हैं, जैसे – चेखोव की वार्ड नंबर छः, द बेट और द ब्लैक मोंक, गैबरियल गार्सिया मार्क्वेज की आइज़ ऑफ ए ब्लू डॉग, बिग मामाज फ्यूनरल, हारुकी मुराकामी की मेन विदाउट वुमेन, यस्टर्डे और कीनो। उसने सबको बड़े चाव से सुना है और उसके लिखे धारावाहिक के प्लॉट भी सुने हैं। उसने मोहन से एक दो दफ़े पूछा है कि क्या वह उसके ऊपर भी कभी कोई कहानी लिखेगा? मोहन ने हर बार इस प्रश्न को टाल दिया है।
“कहाँ खोये हैं?” लाली ने पकौड़ों की प्लेट रखते हुए पूछा।
“आपका इंतज़ार था” – मोहन ने हँसते हुए कहा और सटाक से उठकर बैठ गया।
लाली बीच में और पकौड़े लाने के लिए उठी और दोनों के लिए चाय भी ले आई।
बाहर बारिश और हवा तेज़ हो गई थी। मोहन ने जब प्लेट का आख़िरी पकौड़ा उठाया तो बिजली चली गई। लाली पास ही बैठी थी। कमरे में घुप्प अंधेरा भर आया। कुछ देर तक दोनों स्थिर बने रहे फिर लाली ने अंधेरे में अपना प्याला नीचे रखा, प्लेटें साइड की और मोहन के साथ सोफ़े पर लम्बा पसर गई। उसकी पीठ मोहन की छाती से लगी थी। मोहन ने अपना बाँया हाथ लम्बा कर उसकी कमर पर फैला दिया।
शायद दिनभर काम करते रहने से या अभी किचन में खड़े रहने से लाली के शरीर से पसीने की गंध आ रही थी। थोड़ी देर तक दोनों वैसे ही पड़े रहे।
“कुछ सुनाओ न” – लाली ने धीरे से कहा।
मोहन कुछ देर चुप रहा फिर उसने धीरे से जापानी कथाकार मुराकामी की कहानी ‘सम्सा इन लव’ को अपने ढंग से सुनाना शुरू किया।
बारिश अभी भी तेज़ थी। हवा का झोंका बंद दरवाज़े से टकराता था और किसी के दरवाज़ा पीटने का भ्रम पैदा करता था।
कहानी के किसी एक मध्यांतर में, लाली ने धीरे से अपनी शमीज़ उतार दी और मोहन का एक हाथ उठाकर अपनी छाती पर रख दिया।
ठीक उस समय जबकि नायक नायिका से मिलने हॉस्टल जाता है जहाँ वह आज अकेली है, कहानी रुक गई।
कुछ देर तक मोहन का हाथ वहीं पड़ा रहा। उसके भीतर एक उन्माद की आग थी जो लाली का सामीप्य पाकर धीरे-धीरे बढ़ रही थी, पर अँधेरे की इस घटना ने अचानक मोहन के मन को यादों के किसी और मंज़र की ओर मोड़ दिया।
2
मोहन को अपनी गर्लफ़्रेंड रुचिका खन्ना का ध्यान हो आया। वह भी मूवी थियेटर के अँधेरे में इरोटिक सीन आने पर अक्सर उसका हाथ अपने हाथ में ले लेती थी और दबाया करती थी। गुड़गाँव के एक मूवी थियेटर में ऐसे ही एक सीन में उसने मोहन की जींस अनज़िप कर दी थी। मोहन हड़बड़ा गया था। वो हँस रही थी। मोहन असहज हो जाता था। उसके लिए इरोटीसिज़्म की खुराक पॉर्न है, हिन्दी सिनेमा नहीं और सिनेमाघर, सिनेमा देखने के लिए है, प्यार करने के लिए नहीं।
वह रुचिका से प्यार करना चाहता था – किसी हिन्दी कहानी के प्लॉट की तरह, फणीश्वरनाथ रेणु की ‘आदिम रात्रि की महक’ की तरह, प्रेमचंद के ‘आखिरी तोहफ़ा’ की इबारत से। रुचिका को सस्पेंस, थ्रिलर और रोमांच पसंद था – सिडनी शेल्डन, ज्याफ़्री आर्चर। वह उसी की यूनिवर्सिटी के अंग्रेज़ी विभाग में गेस्ट लेक्चरर थी।
उसने एक बार मोहन को अँग्रेजी के ‘मिल्स एंड बून’ सीरीज की किताब पढ़ने को दी थी – “ये पढ़ो, ये आजकल खूब बिकने वाली प्रेम कहानियों में से है।”
मोहन ने आकर्षक कवर वाली पतली किताब को पलटकर देखा। एक महिला लेखिका थी – सारा मॉर्गन जिसके परिचय में लिखा था – अवार्ड विनिंग आर्थर ऑफ हॉट, हैप्पी एंड कंटेम्पररी रोमांस। उस पतली किताब के चमकते कवर पर हाथ फेरते हुए मोहन को अपने हिन्दी के उपन्यासों के सस्ते, रंगहीन औए बेलौस पेपरबैक कवर की याद आ गई और महसूस हुआ कि ये कवर उन दोनों की ज़िंदगी में अंतर के बहुत सटीक उदाहरण हैं- हॉट एंड हैप्पी, सरल और बेलौस।
लगभग चार-एक महीनों के साथ में मोहन ने सांकेतिक और प्रत्यक्ष, व्यवहार और बुद्धिमत्ता हरेक तरीके से रुचिका को बताना चाहा कि वह उससे प्यार करता है और उसका लम्बा साथ चाहता है पर रुचिका का प्रेम – आज कैसी लग रही हूँ, विकेंड पर हिमाचल चलें, रोजाना शेव क्यूँ नहीं करते तुम, बार-बार ईयररिंग क्यूँ लाते हो – से ज्यादा गंभीर नहीं हो पाया। पांचवें महीने में उसका यूनिवर्सिटी में पढ़ाने का कोंट्रेक्ट ख़त्म हो गया और फिर वह अपने शहर मोहाली चली गई। मोहन को बाद में कहीं-कहीं से पता चलता रहा कि उसने एक एड एजेंसी में कंटेन्ट डेवलपर की नौकरी ले ली है। वह आजकल एक स्टार्ट-अप में काम कर रही है और यह कि उसने स्टार्ट-अप वाले फ़ाउंडर से शादी कर ली है। फिर एक दिन दरवाज़े पर पोस्टमैन उसकी शादी का कार्ड छोड़कर चला गया।
जो बात उसके साथ रहके लगती थी, वह कमी रुचिका से बिछड़कर और प्रबल होती गई। मोहन को लगा कि उसे ख़ुद को और अपग्रेड करने की ज़रूरत है। मॉडर्न और कंटेम्पररी होने की ज़रूरत है। हैप्पी और हैपनिंग होने की ज़रूरत है। गर्मी की छुट्टियाँ आ रही थी। उसने एक बैकपैक तैयार किया और घूमने निकल पड़ा।
वह पहले हिमाचल स्पीति-वैली गया था लेकिन वहाँ रुक नहीं पाया। वह रुचिका के ज़िद करने पर एक बार साथ जा चुका था और परिचय की जगहों पर जाने से बार-बार उसका ध्यान आने लगता था। वह मनाली निकल गया फिर शिमला, वहाँ से हरिद्वार, केदारनाथ, हेमकुंड साहिब और वैली ऑफ फ़्लावर्स। केदारनाथ दर्शन करके वह खूब रोया। लौटते समय ऋषिकेश में हफ़्ते भर के मेडिटेशन शिविर के पैसे भरे पर मन नहीं लगा। दूसरे दिन हरिद्वार निकल आया। वहाँ शाम में गंगा आरती के समय खड़े होने की जगह को लेकर पंडों से हाथापाई हो गई। उसी शाम वह जयपुर की बस पकड़ कर राजस्थान निकल पड़ा। जोधपुर के किले में घूमते हुए उसने एक सुंदर-सी डायरी खरीदी। लाल कवर वाली और तय किया कि वह आज से इसमें कुछ-न-कुछ रोज़ लिखा करेगा। जोधपुर से जैसलमेर की बस में उसने ‘मिल्स एंड बून’ की वही किताब निकाली और पढ़ने लगा। फिर रात के अँधेरे में उसने बैठे-बैठे हस्तमैथुन किया। अंडरवियर सूती था पर पाजामा फिर भी थोड़ा गीला हो गया और उसे कोफ़्त महसूस हुई। चार दिन बाद जैसलमेर से आगे सैंड-ड्यून्स में चाँदनी रात में टेंट से बाहर आकर उसने फिर यही किया, फिर जेब से रुमाल निकल कर साफ किया और फिर रुमाल भी वहीं फेंक दिया।
जैसलमेर से माउंट-आबू और उदयपुर होते हुए वह अहमदाबाद पहुँचा। वहाँ वह एक अच्छे होटल में रुका। शेव करके दाढ़ी हटाई और स्पा जाकर मसाज लिया। अगली रात होटल के सातवें फ़्लोर की बालकनी में बैठे उसने बीयर पी और मोबाइल पर ‘कॉल-गर्ल्स नियर मी’ ढूँढा। फिर कई फोटो, साइट और लिंक चेक करते हुए एक दो को फ़ोन किया। सात हज़ार फुल सर्विस। टू आवर टेन थाउजेंड। नौ हज़ार, पहले मसाज रहेगा सर, पूरी रात आप रख सकते कोई इशू नहीं। आप जब भी आओगे याद करोगे सर, पंजाबी, गुजराती सब हैं। दस बज रहे हैं सर, जल्दी बताओ आप। अपना बजट तो बताओ सर। मेच्योर चलेगी? ज्यादा उमर नहीं रहेगी…
मोहन ने जितने को फ़ोन किए, जवाब में आने वाले फ़ोन की संख्या बढ़ती गई। पैसा और च्वाइस ये दो प्रधान बातें थीं जो सब जानना चाहते थे। कुछेक ने उसके होटल और लोकेशन के बारे में भी पूछा जिससे मोहन को थोड़ी घबराहट होने लगी। उसने मोबाइल बंद कर दिया। उस रात अँधेरे में होटल की बिस्तर पर लेटे-लेटे मोहन ने कल्पना की कि रुचिका बायें हाथ की उँगलियों से उसकी जींस अनज़िप कर रही है और इस बार उसे बिलकुल असहज नहीं लगा। उसने उसके चौड़े नितंब और भराव से गुजरते हुए एक सुखांत यात्रा पूरी की।
अगली सुबह अहमदाबाद से मोहन जूनागढ़ निकल आया। गिर नेशनल पार्क में सफ़ारी की और दोपहर की बस पकड़ दीव आइलैंड निकल पड़ा। उस शाम दीव में अरब सागर के बिलकुल किनारे पुर्तगालियों के बनाये किले के सबसे ऊँचे वाच-वाटर से झाँकते हुए मोहन को अलग रोमांच का अनुभव हुआ। हवा तेज़ चल रही थी और सामने अरब सागर में उठती और पटकती लहरों का शोर कर्णभेदी प्रतीत होता था। वह समंदर की ओर मुँह करके खड़ा हुआ और अपने दोनों हाथ फैला दिये, जैसे इस तेज़ हवा में पंख फैला परिंदों की तरह उड़ जाना चाहता हो। फिर उसने सामने लहरों के टकराने जैसी ज़ोर की आवाज़ निकालने की कोशिश की – हो$$$, हो$$$, होओ$$$$। दूर-दूर तक कोई नहीं था। उसने बैग से बोतल खींची, पानी पिया और किले की ऊँची दीवार के कोने से नीचे खाइयों की ओर मूतने लगा।
दीव छोटा सा द्वीप था जहाँ इस मौसम में कम ही पर्यटक आते थे। तीन-चार दिन रहने के बाद मोहन को निर्जनता खलने लगी। कुछ दिनों बाद वह समंदर के किनारे-किनारे बनी सड़कों से होते हुए पहले पोरबंदर और फिर द्वारका पहुँचा। यह देश के सबसे पश्चिमी किनारों में से एक है। मोहन को जगह अच्छी लगी और उसने यहाँ कुछ दिन रहने का निश्चय किया।
3
“क्या हुआ? नहीं करना आज?” लाली ने सोफ़े पर पलटते हुए पूछा।
मोहन की तंद्रा टूटी।
कमरे में अभी भी अंधेरा था। बाहर बिजली गरज रही थी और बारिश बदस्तूर जारी थी।
“रहने दो! अच्छा, मसाज दोगे? आज कमर से ऊपर टूटन-सी हो रही। तुमने जब-जब की है, बहुत अच्छा लगा है। कहाँ से सीखा हल्के-हल्के हाथ चलाना?” – लाली ने खनकती आवाज़ में पूछा।
मोहन हँस पड़ा।
“हाँ, आओ लेट जाओ।”
“मैं पसीने में अच्छी नहीं लगती ना?”
“अपनी नहीं लगतीं, नहा के धुले कपड़ों में आती हो तो नयी और मेरी लगती हो।”
“ऐसा क्या पागल, हूँ तो वही मैं। तुम सोचते ज़्यादा हो।”
लाली पीठ के बल सोफ़े पर लेट गई और अपना ब्रा उतार कर सोफ़े के नीचे डाल दिया।
मोहन मोबाइल की रोशनी से आलमीरा में पड़ा बॉडी-लोशन का डब्बा उठा लाया और लाली की कमर के ऊपर पैर फैला के बैठ गया।
“कहानी तो पूरी करो!”
“कहाँ था मैं? भूल गया…”
“लड़का, लड़की से मिलने उसके हॉस्टल जाता है। आज इतवार है और उसका पूरा डोर्म ख़ाली है।”
“हाँ”, फिर मोहन ने कहानी आगे बढ़ाई और साथ-साथ हल्के हाथों से पीठ पर थपकी देनी शुरू की।
मोहन को ऐसे मसाज देना नीता ने सिखाया था। नीता डांगरिया। मिसेज़ नीता डांगरिया पाल।
4
नीता से मोहन की पहली मुलाक़ात द्वारका बस अड्डे पे हुई थी, जब वह अहमदाबाद की बस में बैठ रहा था। बस खुलने में अभी दस मिनट थे। वह नीचे उतरकर टहलने लगा। जींस कुर्ते में एक लम्बे गोरे कद की महिला दूर खड़ी सिगरेट फूँक रही थी। उसे कई लोग देख रहे थे। बस खुलने के ऐन पहले वह औरत चढ़ी और फिर आगे खड़े मोहन से पूछा कि यह अहमदाबाद सही समय में पहुँचती तो है। मोहन पहली बार जा रहा था पर उसने कहा – “हाँ, बिलकुल।”
“ओके, एक्चुएली मेरी दिल्ली की ट्रेन सुबह छः बजे ही है।”
“कौन-सी , सुल्तानपुर एक्सप्रेस?”
“हाँ।”
“ओके, मैं भी उसी से उसी से जा रहा।”
“दिल्ली?”
“हाँ।”
दोनों बस स्टॉप से स्टेशन साथ ही आये। दोनों के कोच अलग अलग थे पर मोहन अपनी बर्थ पर थोड़ी देर सोने के बाद उठकर उनकी कोच में चला गया। बातें होने लगी। नीता के पति द्वारका से आगे ओखा नेवल बेस में अधिकारी हैं और वह उनसे मिल के लौट रही है। बच्चे को बोर्डिंग में डाल दिया है। अपना बूटिक और ब्राइडल वियर की शॉप है आगरा में – “नॉट सो फ़ेमस बट कीप्स मी बीजी” – उसने कहा था। सफ़र में दोनों की बातचीत कई दौरों में होती रही।
दिल्ली में उतरते समय मोहन ने उसे दिल्ली आने का न्योता दिया और नीता ने आगरा का। रुक-रुक कर चैट और बातें होती रही। फिर एक वीकेंड पर मथुरा में हिन्दी के एक सेमिनार का बहाना कर मोहन उनके घर आगरा हो आया। मोहन को नीता उन औरतों में लगी जिनका एक क्लास होता है – क्लासिक वुमन। वह जो स्कॉच और सिगरेट को लेकर उन्मुक्त हैं और गलैड्रैग्स मैगजीन पढ़ती है। अंग्रेज़ी गाने सुनती है और सालसा करती है।
नीता की परिपक्वता और सुलझा व्यक्तित्व उसे बार-बार उसके शहर खींच लाता।
“तुम्हें पेरिस्कोप पता है मोहन?” एक शाम बीयर पीते हुए नीता ने मोहन से पूछा।
“हाँ, बचपन में पढ़ा था। वह जो पनडुब्बियों में लगा रहता है जिससे पानी में डूबे जहाज़ को सतह से ऊपर की रोशनी आती है?” मोहन ने उत्तर दिया।
“येस। यह पेरिस्कोप ही ना आजकल मानवीय सम्बन्धों का आधार है। मुझे तुममें थोड़ी रोशनी दिखती है और शायद कुछ उजाला तुम मुझमें पाते हो। तो इससे एक पेरिस्कोप बनता है। मेरा और तुम्हारा।”
मोहन को लगा उसे बीयर चढ़ गई है। वह हँसने लगा।
सम्बन्ध ड्राइंगरूम से बेडरूम तक कब पहुँच गये, दोनों में से किसी ने इसकी सुध ना ली। उस अधेड़ उम्र की औरत के साथ, जिसने सामने के बालों के एक गुच्छे को पीला डाई करा रखा था और जिसकी ब्राज़िआ के नीचे खिलते गुलाब का टैटू मिलता था, मोहन ने पिछली सर्दी की कई रातें गुज़ारी हैं – आँगन में सिगड़ी जलाए, एक कंबल में आधे लिपटे स्कॉच पीते हुए। नीता ने मोहन के उन्माद और उतावलेपन को धीरता, सहजता और डेलीकेसी सिखाया है। वह एक तटबंध थी जिससे चाहे मोहन कोई भी लहर का रूप धर ले, पार नहीं जा पाता, पस्त हो जाता था। “फील, डोंट रश” – नीता अक्सर अतरंग क्षणों में यह कहा करती।
5
लाली सो गई थी। मोहन ने अपनी उँगलियाँ रोक दी और धीरे से सोफ़े से उतर आया। बाहर बारिश थम गई थी। उसने उठकर कपड़े पहने, स्विच-बोर्ड से बल्ब के बटन ऑफ़ कर दिये जिससे कि लाईट आने पर उसकी नींद ना खुले। पंखा चालू रहने दिया। कमरे में अब भी अँधेरा था। वह सोफ़े से दूर लगी प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठ गया। लाली की लम्बी साँसों की आवाज़ कमरे की एकमात्र आवाज़ थी। अँधेरे में उस स्टूल पर बैठे हुए मोहन को आभास हुआ कि उसके चेहरे के चारों ओर मकड़ी के जालों के जैसी कोई चीज़ है जिसने उसे घेर लिया है और जिसमें वह उलझता जाता है। वह अपने हथेलियों से रगड़कर अपना चेहरा पोंछने लगा। अँधेरे में उस स्टूल पर बैठे हुए मोहन को लगा कि वह तथागत बुद्ध है, किसी खोज में निकला बुद्ध, महाभिनिष्क्रमण से पहले का बुद्ध, जब आधी रात को शयनकक्ष में उनकी नींद खुल जाती है और आस-पास सो रही रानियों के ढलते यौवन, अंगों और चित पर फैले विकार और जीवन की क्षणभंगुरता देख उनका मोहभंग हो जाता है। उसे लगा कि इस अँधेरे कमरे में लाली के साथ, नीता भी सोयी है और रुचिका भी।
मोहन को तब स्मरण हुआ कि बुद्ध ने ठीक कहा है कि संसार में दुख है। लाली मोहन से दो साल छोटी है। बचपन में दोनों साथ-साथ खेलते थे। वह उसे अमरूद तोड़कर देता था और वो उसके घर दही लेकर आती थी। लाली अहिरिन की बेटी है, ज्यादा पढ़ नहीं पाई। मोहन सेठजी का पोता था सो पटना पढ़ने निकल आया फिर दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएचडी की और अब वहीं पढ़ाता है। लाली इतनी अच्छी होकर भी रंजीत की पत्नी है और नीता इतनी संसार-कुशल होकर भी तन्हा अनुभव करती है।
फिर बुद्ध ने अपना रास्ता चुना था – मोहन को लगा कोई तेज़ घंटियों के शोर के बीच उसे यह कह रहा है – फिर बुद्ध ने अपना रास्ता चुना था।
फिर बुद्ध ने अपना रास्ता चुना था।
फिर बुद्ध ने अपना रास्ता चुना था।
वह अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ।
फिर मेज़ पर पड़ा अपना बैग और घड़ी उठाकर मोहन आहिस्ता दरवाज़े से बाहर आ गया। गली में सन्नाटा था। बारिश रुक गई थी और आसमान साफ़ हो रहा था। वह यंत्रवत तेज़ कदमों से चलते हुए मेन रोड पर आ गया।
“साकेत मेट्रो स्टेशन?”
“सत्तर रुपये भैया।” – ऑटो वाले ने कहा।
वह तपाक से बैठ गया।
मेट्रो स्टेशन बंद हो रहा था। टिकट काउंटर की बत्तियाँ बुझा दी गई थीं। उसने मेट्रो पास से एंट्री ली और प्लेटफॉर्म से दौड़ते हुए खड़ी मेट्रो में चढ़ गया।
पूरी ट्रेन खाली थी और पटरियों पर गाड़ी के दौड़ने से होने वाली धड़धड़ाहट साफ़ सुनाई दे रही थी।
उस रात सोने से पहले मोहन ने नीता को एक संक्षिप्त-सा – थैंक यू एंड गुडबाय – नोट लिखा। फिर उसने धारावाहिक की अगली कड़ी लिखी जिसमें नायक को ऑफिस में रुचिका के शारीरिक बनावट की एक सेक्रेटरी मिल जाती है जिसके साथ वह एक दोपहर फ़िल्म देखने जाता है और जो अँधेरे में बायें हाथ की उँगलियों से उसके जींस की ज़िप नीचे कर देती है।
यह भी पढ़ें: तसनीफ़ हैदर की कहानी ‘खिड़की’