बचपन में मैं मिट्टी खाता था,
बड़ा अच्छा लगता था इसका स्वाद
फिर बड़ा हुआ तो मालूम हुआ
खाने के लिए मिट्टी नहीं
रोटी होती है
और
रोटी ज़मीन पर पड़ी हुई नहीं मिलती

कमाने की होड़ में मैंने जाना
रोटी इस पृथ्वी से भी ज़्यादा गोल है
और सब लोग गोल-गोल इसी के पीछे घूम रहे हैं
मगर वो भूल रहे हैं
जो सबसे आगे है, वही सबसे पीछे है।

आगे-पीछे की इस दौड़ में
जब भगदड़ मचती है तो
कमज़ोर भूख पर सवार हो जाते हैं
भूख लाशों पर

लाशों को देखकर मैंने जाना—
पेट भरा हुआ इंसान इस दुनिया का
सबसे ज़्यादा सम्वेदनहीन प्राणी है!

अगर मुझे कुछ नियम बदलने को मिलें तो
तीन चीज़ें बदलना चाहता हूँ—

इंसान के हाथ इतने ज़्यादा कमज़ोर होने चाहिए कि उनसे
कोई हथियार ना उठे,
कंधे इतने मज़बूत कि अगर उन पर दो बूँद आँसू भी गिरें तो
वो उन्हें ज़मीन पर न गिरने दें
और इंसान का पेट रोटी से नहीं, मिट्टी से भरना चाहिए!

पर अब जब भी कभी मिट्टी चखता हूँ
लगता है यह पहले जैसी नहीं है,
थोड़ी फीकी हो गई है।
अब मिट्टी को प्यास लगती है
तो शायद पानी नहीं,
ख़ून माँगती है!

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