‘राधा कृष्ण’ न बोले,
और, न ‘सीता राम’ कहा उन ने
चुग्गा खाकर शुक जी-
‘ठेऊँ-टेंऊँ-टिंयाँ’ लगे करने।
कई युगों से बैठे
बन्दी कीर पींजरे में अपने
खाते हैं, पीते हैं
किन्तु न अक्षर एक सीख पाये।
रहे असंस्कृत अब तक,
तो क्या छोड़े आशा संस्कृति की?
ये क्या वह ऊसर हैं
जिसमें कोई बीज नहीं जमता?
सुआराम, क्या यों ही
बने रहोगे जंगली के जंगली?
वन्य भाव अब छोड़ो
करो पठित एकाध नाम-अक्षर।
व्यर्थ करो मत टें-टें
और, न अपने पंख फड़फड़ाओ।
पिंजरे की तीली पर
मत रगड़ो अब और चोंच अपनी।
पिंजर-मुक्ति मिलेगी,
जब तुम निश्चल, शान्त, सौम्य होकर,
लेकर अक्षर-आश्रम –
अन्तरिक्ष नापोगे नयनों से।