‘Pita’, Hindi Kavita by Vivek Chaturvedi

पिता! तुम हिमालय थे पिता!
कभी तो कितने विराट
पिघलते हुए से कभी
बुलाते अपनी दुर्गम चोटियों से
भी और ऊपर
कि आओ- चढ़ आओ

पिता! तुम में कितनी थीं गुफाएँ
कुछ गहरी सुरंग-सी
कुछ अँधेरी कितने रहस्य भरी
कितने कितने बर्फ़ीले रास्ते
जाते थे तुम तक

कैसे दीप्त हो जाते थे
तुम पिता! जब सुबह होती
दोपहर जब कहीं सुदूर किसी
नदी को छूकर गीली हवाएँ आतीं
तुम झरनों से बह जाते
पर शाम जब तुम्हारी चोटियों के पार
सूरज डूबता
तब तुम्हें क्या हो जाता था पिता!
तुम क्यों आँख की कोरें छिपाते थे

तुम हमारे भर नहीं थे पिता!
हाँ! चीड़ों से
याकों से
भोले गोरखाओं से
तुम कहते थे पिता! – ‘मैं हूँ’
तब तुम और ऊँचा कर लेते थे ख़ुद को
पर जब हम थक जाते
तुम मुड़कर पिट्ठू हो जाते

विशाल देवदार से बड़े भैया
जब चले गये थे घर छोड़कर
तब तुम बर्फ़ीली चट्टानों जैसे
ढह गये थे
रावी सिन्धु सी बहनें जब बिदा हुई थीं
फफक कर रो पड़े थे तुम पिता!

ताउम्र कितने कितने बर्फ़ीले तूफ़ान
तुम्हारी देह से गुज़रे
पर हमको छू न सके
आज बरसों बाद
जब मैं पिता हूँ
मुझे तुम्हारा पिता होना
बहुत याद आता है
तुम! हिमालय थे पिता!

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Striyaan Ghar Lautti Hain - Vivek Chaturvedi

 

विवेक चतुर्वेदी
जन्मतिथि: 03-11-1969 | शिक्षा: स्नातकोत्तर (ललित कला) | निवास: विजय नगर, जबलपुर सम्पर्क: [email protected]