किसी अधलिखी चिट्ठी की तरह चले गए पिता
सब कुछ बाक़ी रह गया धरा का धरा
अब वह कभी पूरा नहीं हो पाएगा

वो स्याही सूख रही है जिससे लिखते थे वे
पानी का गिलास धीरे-धीरे काला पड़ता जा रहा है
उनकी कुर्सी पर रोज़ पहले से अधिक धूल भर जाती है
जबकि रोज़ पोंछा जाता है उसे

हर चीज़ जो उनके छूने भर से ज़िन्दा हो जाती थी
इन दिनों वह सब मरती हुई दिखायी देती है
ये शोक है या ग़ुस्सा उन चीज़ों का
पता नहीं
लेकिन इतना ज़रूर है
कि घर की हर ईंट की रंगत उतर गई है

मैं रोता हूँ तो थककर चुप हो जाता हूँ
उनकी डायरी का रोना तो दिखता भी नहीं
उनके लिखे और कहे की आवाज़ दिन-रात गूँजती है
बस एक काँपती और कलपती हुई आवाज़

जैसे कोई घसीटकर ले जा रहा हो उन्हें
और वे हैं कि छोड़कर जाना नहीं चाहते!

ज्ञानरंजन की कहानी 'पिता'

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शंकरानंद
शंकरानंद जन्म 8 अक्टूबर 1983 नया ज्ञानोदय,वागर्थ,हंस,परिकथा,पक्षधर,कथादेश,आलोचना,वाक,समकालीन भारतीय साहित्य,इन्द्रप्रस्थ भारती,साक्षात्कार, नया पथ,उद्भावना,वसुधा,कथन,कादंबिनी, जनसत्ता,अहा जिंदगी, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर,हरिभूमि,प्रभात खबर आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित। कुछ में कहानियां भी। अब तक तीन कविता संग्रह'दूसरे दिन के लिए','पदचाप के साथ' और 'इनकार की भाषा' प्रकाशित। कविता के लिए विद्यापति पुरस्कार और राजस्थान पत्रिका का सृजनात्मक साहित्य पुरस्कार। कुछ भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी। हिन्दवी,पोषम पा, कविता कोश, हिन्दी समय, समालोचन, समकालीन जनमत पर भी कविताएं। संप्रति-लेखन के साथ अध्यापन। संपर्क-shankaranand530@gmail.com