माँ-पिता प्रेमी-प्रेमिका नहीं बन सके

मेरी माँ जब भी कहती है—
“प्रेम विवाह ज़्यादा दिन नहीं चलते, टूट जाते हैं”
तब अकस्मात ही मुझे याद आने लगते हैं अनेकों क़िस्से
जैसे आख़िरी बार माँ की तबियत जब बिगड़ी थी
तब एक घर में रहते हुए भी
हम बच्चों ने पिताजी को माँ की तबियत बिगड़ने की ख़बर दी
उस पर भी पिताजी आधे घंटे देरी से डॉक्टर बुलाने गए
घर में टमाटर ख़त्म हुए और पिताजी लाना भूल गए
तब रात आठ बजे दफ़्तर से आए पिताजी को उसी थकी-हारी अवस्था में वापस स्कूटर से मंडी जाना पड़ा
माहवारी के दिनों में जब माँ का शरीर टूट रहा होता है
वह तब भी रसोई में रोटियाँ बेलती, दाल में छौंका और चाकू से सलाद काट रही होती है
पिताजी ने कभी रसोई में चकले पर रोटियाँ नहीं बेलीं
हाँ, वो दुखों के बीच माँ को कभी-कभी दो रुपये देकर हाट छोड़ जाने वाले सुख बेलते रहे हैं
पिताजी को कभी बुख़ार चढ़ा हो तो माँ को दवा, खाना देते हुए देखा है
मगर उनकी गोद में पिताजी का सर कभी नहीं देखा
न ही माँ का सर पिताजी की गोद में देखा जब भी माँ को ज्वर चढ़ा।
मगर दोनों ने ही अपने बच्चों के सर गोद में रखे हैं
हाट में चाट भी खिलायी है
बच्चों ने हुक्म दिया लाले की मिठाई का, काठ के घोड़ा का, उन्हें मिला
हर शाम दो-दो रुपये
गर्मियों की छुट्टियों में नानी का घर
उन्हें सब मिला… यानी हमें सब मिला।
इस सबके मध्य यह कहा जा सकता है
माँ और पिताजी ने यह तो सिखाया कि माँ-बाप कैसे हुआ जाता है
माँ-पिता बच्चों से कैसा प्यार करते हैं
लेकिन उन्होंने यह कभी नहीं सिखाया कि पति-पत्नी के मध्य प्रेम का रिश्ता कैसे निभाते हैं
पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका हो सकते हैं या नहीं?
अगर हो सकते हैं तो कैसे हुआ जाता है प्रेमी-प्रेमिका।

मेरी लड़कियो

मेरी लड़कियो! तुम पढ़ो!
सिर्फ़ इसीलिए नहीं कि आज के वक़्त में शादी के लिए लड़कों को चाहिए एक पढ़ी-लिखी लड़की
सिर्फ़ इसीलिए नहीं कि रसोई के सामान को ख़रीदने में हो तुम्हें सहूलियत
तुम पढ़ो… इसीलिए ताकि तुम सवाल कर सको
तुम जवाब दे सको
तुम स्वतंत्र रह सको

उत्तर में बसी लड़कियो, तुम पढ़ो कि पढ़ने से ही सियासतदानों के मंसूबे समझ सकोगी
अपनी घाटी में चहक सकोगी आज़ादी के दुपट्टे लिए
तुम पढ़ो ताकि लोगों का भ्रम टूटे कि घाटी के लोग होते हैं ‘देशद्रोही’
मेरी लड़कियो, तुम पढ़ो

दक्षिण में खेलती लड़कियो पढ़ो
कि तुम्हारे पढ़ने से ही दक्षिण गंगा होगी साफ़
लड़ सकोगी ख़ुद के लिए
चुन सकोगी अपना प्रेमी
तुम सत्ता का रुख़ भी बदल सकोगी
मेरी लड़कियो, तुम पढ़ो

पूरब की लड़कियो पढ़ो
तुम्हें पढ़ना है हर ज़ुल्मो-सितम के महल तोड़ने के लिए
सिर्फ़ चाय की पत्तियाँ नहीं तोड़नी हैं
तुम्हें तोड़नी है पितृसत्ता की रीढ़
लड़कियो पढ़ो कि तुम्हारे पढ़ने से सतबहनें ताज़ी हवा ले पाएँगी
मेरी लड़कियो, तुम पढ़ो

पश्चिम में रेत के ढेरों में दबी लड़कियो पढ़ो
तुम्हें पढ़ना है ताकि हाथ पीले न हो सकें तुम्हारे उस उम्र में, जिस उम्र में होती है बच्ची को माँ की ज़रूरत
तुम पढ़ो ताकि तुम्हारी आने वाली पीढ़ियाँ तुम्हें दबा न सकें, तुम्हें गवार ना कह सकें, तुम्हें छेक ना सके घर में मत लेने से
मेरी लड़कियो…
मेरे भारत की लड़कियो
तुम पढ़ो… और जो कोई न पढ़ने दे तुम्हें तो छीन लो पढ़ने के सभी अवसर
लड़ जाओ अपने हक़ों के लिए
पढ़ो कि तुम्हारे पढ़ने से इंक़लाब आएगा
तुम्हारे पढ़ने से क्रांति आएगी
तुम्हारे पढ़ने से ही इस देश में आएगा वह दौर
जो कभी नहीं लाया गया है तुम्हें दबाकर
तुम्हारे पढ़ने से सूखे हो चुके रेगिस्तानों में फूल उगेंगे।

मुक्ति चुनी

“काश तुम सवर्ण न होते
काश मैं दलित न होती”
इस विशेष ‘काश’ ने मुझे तुम्हें ज़्यादा सोचने से हमेशा रोका ही
ज़्यादा सोचती तो तुमसे शायद प्रेम होते देर नहीं लगती
तुम्हारी आवाज़ और शब्दों को जादू आते हैं
उन्हें मेरे क़रीब घेरे बनाने में समय नहीं लगता
लेकिन तुमसे प्रेम करना मुझे अपराध-बोध से भर देता
जबकि मैं अपने पुरखों के ज़ख़्म नहीं भुला सकती
मेरे लोग के दर्द मुझे पुकारते हैं
मैं उनका साथ देना चाहती हूँ
लेकिन तुमसे प्रेम करना मुझे डर से भर देता
इसीलिए मैंने चुना तुमको ‘न सोचना’
और यह चुनकर मैंने अपने पुरखों के संघर्ष चुने
मैंने चुना रास्ता अपने लोगों की मुक्ति का।

तुम्हारे नाम में क्या रखा है?

तुम्हारे नाम में क्या रखा है?
कुछ नहीं
कुछ भी तो नहीं रखा था नाम में जब तक ‘रेंगता’ धरती पर
अब रेंगता हूँ तुम सबके बीच…
तुम्हारी मेहरबानी है कि मेरे नाम
सिर्फ़ नाम में क्या नहीं रखा है…

मेरे नाम में छिपा है
किस ज़िले के किस इलाक़े से हूँ मैं
किस मोहल्ले में बिलखता आया हूँ
मेरी गली किस धार्मिक इमारत के सजदे में रहती है
मेरे नाम में तुम्हारी ‘जड़’ सच्चाइयाँ रखी हैं
मेरे नाम में अदब, तहज़ीब, खान-पान, तीज-त्यौहार, बढ़ई के औज़ार
साड़ी के गोटे में छिपी ज़ात
बोली के लहजे में पुरखों की हर बात
मेरे नाम को पहनाया है तुमने पायजामा
कहा है तुमने कभी नक्सली, कभी देशद्रोही जमात
औे’ तुम पूछते हो मेरे नाम में क्या रखा है?

मेरे नाम ने स्कूल की आख़िरी बेंच मेरे नाम की है
पानी की एक टंकी, खेलने का मैदान
निकलने का समय तय किया है
कैसी किताबें मेरी आँखें पढ़ेंगी
रात को लैम्प में फिर से मिट्टी का तेल डलेगा या आ जाएगी बिजली कुछ हफ़्तों बाद
मेरे जीवन की सम्भावनाएँ हैं
यह मेरे नाम में छिपे बताते हैं कुछ दानें
अस्सी प्रतिशत गटर, दस प्रतिशत बिरयानी वाले या बचे दस प्रतिशत ऊँची कुर्सी पर खोखले दिमाग़ के ताने
औ’ तुम पूछते हो मुझसे मेरे नाम में क्या रखा है?

नाम बताने-भर से रॉड से पीटा जाऊँगा
पेट भरने के लिए आधार छप जाऊँगा
फटी, मैली शर्ट पर थूक जम जाएगा
मैं, मेरे नाम-भर से… जिस मिट्टी में जन्म लिया उसी का क़ातिल बन जाऊँगा
ब्याह में शहनाई बजेगी, घोड़ी पर चढ़ा जाएगा
या सेहरा उतारकर किसी का जूता चूमा जाएगा
एक जानवर के पॉलिटिकल प्यार में मेरी खाल को काढ़ लिया जाएगा
चलती ट्रेन से उतारकर पटरी पर फेंका जाएगा
मैं कहाँ तक के बंजर का मालिक हूँ
यह मेरे नाम से पहचाना जाएगा
औ’ तुम पूछते हो मुझसे मेरे नाम में क्या रखा है?

मैं बताता हूँ मेरे नाम में क्या-क्या रखा है
मेरे नाम में रिसता लहू इंक़लाब की चाह रखता है
जहान-भर की कोशिशें कर लो
नाम पर मेरे कालिखें पोत दो
लाकर धारदार चाकू मेरे नाम के पेट-पीठ में गोद दो
तुम्हारे चाकू से लिपटा मेरा नाम…
मेरे नाम में तुम्हारे शोषण का पूरा इतिहास रखा है
तुम पूछते हो मेरे नाम में क्या रखा है?!

बकौल कविता

मैं कविता
वर्तमान की छत से एक क़दम हवा में तैराते हुए चीख़-चीख़कर कह रही हूँ
पहलू को भीड़ ने नहीं मारा था
उसको किसी ने नहीं मारा था
वह बेवड़ा था
पत्थर पर सर मारते-मारते अपने आप मरा

गटरों में लोग गैस के प्रेशर से मरते हैं
इस वजह से नहीं कि मशीनें नहीं दी गई हैं उन्हें

मैं कविता एक हाथ से एक आँख को मूँदकर चीख़-चीख़कर कह रही हूँ
खुले में शौच करते दो बच्चे लाठी की मार से नहीं मरे थे
वे बेवक़ूफ़ थे, साँप के सूँघने से मरे

तड़वी को जातिवादी सोच की लड़कियों ने मरने को बेबस नहीं किया था
बस वह टिक नहीं पायी महानगर की चका-चौंध में

बंगाल में किसानों का जत्था लड़ा अपनी ज़मीनी लड़ाई
उसी बंगाल की सड़कें किसानों के ख़ून से नहीं हुई थीं लाल
वे सिरफिरे अन्न उगानेवाले रंगमंच सजाने आए थे

मैं कविता छत के मुहाने पर दोनों कानों को बंद करते हुए चीख़-चीख़कर कह रही हूँ
कि मैंने झूठ कहा सब
इतना चीख़ते हुए झूठ कहा कि सच बन गया
ओह!!! यह क्या!
अचानक, कविता गिर गई छत से
बिना चीख़े करहाते हुए बोली
मुझे धकेला नहीं गया है
ख़ुद से मर रही हूँ…
छत से काला ख़ून टपक रहा था
टप! टप! टप! कविता के पेट पर
वह पीठ नहीं, पेट के बल गिरी थी।

दोहरी पीड़ा

पीड़ा झेलनेवाले से
कहा जाए कि अपनी पीड़ा सिद्ध करो
हम सवाल करते हैं, तुम जवाब दो
उससे पूछा जाए
कैसा लगता है दर्द? कैसे उठती है टीस?
तब जवाब समझ नहीं आते
शब्द जीभ का पता भूल जाते हैं
दिमाग़ सोच में डूब जाता है कि पीड़ा को सिद्ध कैसे किया जाए?
पीड़ा को सिद्ध करना ही दोहरी पीड़ा को जन्म देता है।

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किताब सुझाव:

आशिका शिवांगी सिंह
मेरा नाम आशिका शिवांगी सिंह है, उत्तर प्रदेश के मथुरा शहर से हूँ। लेखन की शुरुआत कविताओं से बारह वर्ष की उम्र में हुई, चौदह वर्ष की उम्र में पहली कविता हिन्दी साहित्यिक वेबसाइट हमरंग डॉट कॉम पर प्रकाशित हुई। फ़िलहाल नारीवादी संस्था फ़ेमिनिज़म इन इंडिया हिन्दी में बतौर लेखक साहित्यिक राजनैतिक लेख लिखती हूँ। जब से कविताएँ लिखना शुरू हुईं तब से साहित्य को, उसकी अलग-अलग धाराओं, विधाओं को गहराई से समाज के हर स्ट्रक्चर चाहे जेंडर हो, जाति हो, धर्म, भावनाएँ, आदि से जोड़कर समझने की कोशिश जारी है। बहुत प्रयास रहता है कि मेरी कविताएँ उस 'जन' की बात करें जिसकी बात तथाकथित मुख्यधारा करने से कतराता है। मेरा मानना है कि साहित्य किसी भी समय का शौक़ नहीं हो सकता, वह ज़रूरत है। सत्ता से सवाल करने से लेकर प्रेम दर्शाने तक में साहित्य की भूमिका सबसे अहम है। आप मेरी कविताओं को पढ़ें और अपनी आलोचना, असहमति, सहमति मेरे मेल आईडी [email protected] पर भेज सकते हैं।