Poems: Adarsh Bhushan
1
स्त्रियों के जितने
पर्यायवाची
तुम व्याकरण की
किताब में ढूँढते रहे,
एक पर्याय
तुम्हारे घर के कोने में
अश्रुत क्रन्दन और
व्यथित महत्त्वाकाँक्षाओं
के बीच
पड़ा रहा।
2
इस शहर की
परतों से
डर लगता है मुझे।
बाहरी परत पर
रौनक़ का शामियाना
लगा है,
अन्दर की गलियों में
मुफ़लिसी की क़बाएँ हैं,
फुटपाथ पर चलता आदमी
पूछता है मुझसे-
‘कहाँ से आए हो बाबू!
जाना किधर है?’
3
मैं छोटे शहर का आदमी हूँ-
अपना घर छोड़कर
जून कमाने
तुम्हारे शहर
तब तक आता रहूँगा,
जब तक सरकारी दफ़्तर की
फ़ाइलें कम नहीं होती,
सरकारी बाबू के कानों पर
जूँ नहीं रेंगती,
सरकार अपना माथा
फोड़ नहीं लेती।
4
मैं बिलकुल एक दिन के समान्तर में
चलना चाहता हूँ,
लेकिन ये आयाम नहीं चाहता।
यह आयाम सच्चे झूठ का है
जहाँ सिर्फ़ तलाश है।
मैं कुछ भी तलाशना नहीं चाहता,
न प्रेम,
न घृणा,
न निश्चित,
न अनिश्चित…
मैं किसी भी दस्तक से
व्यग्र होना नहीं चाहता,
मैं चाहता हूँ एक नयी परिभाषा
जो लिखी गयी हो
ख़ुद को एक नायक नहीं
अपितु एक किरदार मानकर।
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