फ़ौज के दिन

फ़ौज की बैरकें
मोर्चे
गन और गोला-बारूद
सुरक्षा में कितना डर होता है

अर्ध-रात्रि में
बैरक की खिड़की से गोली की तरह आता है भय
क़तार में लगी चारपाइयों के नीचे
रम की बोतलें-गिलास
बूट और बुलेटप्रूफ़ जैकेट
जंगल जैसी वर्दी
दीवार पर लटकी है

वे अपनी पत्नी और प्रेमिकाओं से दूर
गन और गोला-बारूदों के साथ सोते हैं
स्वप्न में सहवास
ग्रेनेड की तरह बिखर जाता है

फ़ौज से भागे हुए सिपाही
गोली से बच जाते हैं
कायरता के ताने
जीने ही कहाँ देते हैं?

सुख-दुःख

सुख ऐसे भी होते हैं
जी भरकर रोना चाहते हैं
रो लेते हैं
कभी आँसू नहीं रोके
मैं जानता था कि
कुछ हाथ आँसू पोछने के लिए हैं

दुःख के दिन ऐसे भी आते हैं
क्रंदन के कातर स्वर से
गला रुंध जाता है
रोना चाहते हैं
रो नहीं सकते
एकाध आँसू आ ही जाता है
झट से पोंछ लेते हैं
जब पूछता है
(वैसे कोई नहीं पूछता)
तो कह देता हूँ
तुम्हारे सिवा
सब सुख है जीवन में
मैं क्यों रोऊँ।

चाह

ओ मेरी प्रिया,
तुम गुलाब की चाह में
उदास मत रहो

आओ मेरे साथ
घास के फूलों के बीच बैठते हैं

उस मैदान में मिलते हैं
जहाँ चराते थे गायें

हम उस शिला पर लेटते हैं
जहाँ बारिश के बाद
पत्थर की शीतलता
हमारी पीठों से मिलती है

ओ मेरी प्रिया, तुम उदास मत रहो
जीवन के सबसे सादा दिनों को याद करो
जहाँ इच्छाओं में गुलाब नहीं था…

जीजी

जब धरती को लीपकर
मांडने मांडती है तो
मोर बनाती है
मोर के लिए पेड़
पेड़ के लिए पानी
और धरती पर माटी भी मांड देती है

तालाब की माटी से
माथा नहाती है
पीढ़े पर बैठकर कहती है
मेरे फूस के से बाल
फूल की तरह नरम हो गए

फ़ुरसत के दिनों में
तालाब से माटी लाती है
चूल्हा बनाती है
घर को लीपती है
कामों से चिपकी रहती है
और कहती है
जीवन को हर दिन जीना पड़ता है!

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