काम
मेरे पास दो हाथ हैं—
दोनों काम के अभाव में
तन से चिपके निठल्ले लटके रहते हैं!
इस देश की स्त्रियों के पास इतने काम हैं—
भोर से शाम और
शाम से भोर तक
कि वे बस काम ही करती रहती हैं!
वे झाड़ू लगाती हैं
खेत पर जाती हैं
वे अनाज साफ़ करती हैं
बच्चों के साथ भैंसों को नहलाती हैं
वे अपना रचा कोई गीत गाती हैं
धरती पर माँड़ने मांडती हैं
थक हारकर बीजणे से हवा करना
पसीने सुखाना भी
उनके लिए एक काम ही है
लेकिन कोई इन्हें काम नहीं मानता।
मेरे हाथ काम की तलाश में
अनेक तरह का काम करना चाहते हैं—
जैसे कविता लिखना!
इस देश में कविता लिखना
स्त्रियों और मेहनतकश लोगों का काम नहीं है
उनके हाथ इतनी फ़ुरसत में नहीं होते—
भक्त कवियों तरह
कि बैठे-बैठे सोचें और लिखें कविताएँ
कि वे दरबार मे नाचे-गाएँ
रीतिकालीन कवियों की तरह
कि वे आधुनिक कवियों की तरह पढ़-लिख सकें।
वे कविता को इतनी आम बात समझते
अपने जीवन की तरह—
कि काम करते-करते गाते
गाते-गाते काम करते।
मैं इतना दृष्टिहीन कवि हूँ
जीवन में बिखरी हुई कविताओं को—
किताबों में ढूँढता हूँ
भाषा में सोचता हूँ।
गंगाराम कुम्हार
गंगाराम कुम्हार को
गधे की याद भावुक कर देती
पसीने से तरबतर हो जाता
आँखें मिचमिचाता।
अंगुलियाँ देखता तो
आकार बनते
चाक चलने लगता
हाण्डी बनती, मटके बनते
हड़प्पा और मोहनजोदड़ो जैसी कलाकृति बनती।
लोग घड़े में पानी भरते
हृदय शीतल हो जाता
हाण्डी में खाना पकता
भूख मिट जाती।
गंगाराम कुम्हार, ख़ुश होता
वाह रे वाह! प्रजापति!
तूने ही दुनिया बनायी है!
समय का चाक ऐसा चला
अब साहब, बच्चे माटी में नहीं
मोबाइल में खेलते हैं
पानी को बोतल से पीते हैं
खाने को पैकेट में खाते हैं!
गंगाराम कुम्हार गधे को लेकर
जैपर के पास लूणियावास
गधों के मेले में जाता है
मोल-भाव करके अस्सी का बेचा
सौ का ख़र्चा हुआ!
गंगाराम धूल भरे जीवन की कहानियाँ
मेल-मोबाइल के ज़माने के
लड़के-लड़कियों को सुनाता है।