Poems: Ambikesh Kumar

विकल्प

उसने खाना माँगा
उसे थमा दिया गया मानवविकास सूचकाँक
उसने छत माँगी हज़ारों चुप्पियों के बाद
उसे दिया गया एक पूरा लम्बा भाषण
उसने वस्त्र माँगा मेहनताना
उसे दिया गया घोषणाओं से भरा बासी अख़बार
कर्तव्य निर्वहन के बाद
उसने आधिकार माँगे संवैधानिक
उसे थमा दिया गया चाकू
पीछे लगा दी गयी संवैधानिक हथकड़ी
हाथों में
आज़ाद भूख के आगे
उसने थाम ली बंदूक़।

भीड़ मारीच है

भीड़ जिसके हाथ में लाठी है
पेट में भूख
भीड़ जिसने वर्षों झेली हिंसा
वर्षों रही मूक

भीड़ जिसके कंधे पीड़ित हैं
भीड़ जो छूत है, अछूत
भीड़ जिसकी पीड़ा में
अपनों का दुःख

भीड़ जिसमें सभी हैं
हिन्दू-मुस्लिम, सिख-ईसाई
कहने को भाई-भाई
बाभन-डोम-चमार
कोई भी तोड़ दे किसी का हाड़

भीड़ में किसकी जय,
किसकी पराजय
भीड़ जिसमें एक चीज़ है उभय
एक अँगूठा
दूसरा भूख से भरा पेट

भीड़ जिसका एक तीसरा सामान्य
उभयपक्षीय धर्म है
किसी भी धर्म की भीड़ के लिए
वो मरने और मारने पर
जय श्री राम बोलती है
मुक्ति का तो पता नहीं
पर यह तय है अभी भी कोई रावण है
भीड़ जिससे डरती है

बदलते समय के साथ

समय बदलता है अपना रुख़
केकड़े की तरह
पीछे बदल जाता है बहुत कुछ
केकड़े को छोड़
उर्वर जीवन में उग आती है
जंगली घास
बदल जाती है सरकार
कई-कई नियम बदल जाते हैं
संशोधित अधिनियम से
कम कर दी जाती सामान्य वर्गों की
आयु सीमा
निरस्त कर दी जाती हैं कई-कई योग्यताएँ
मंदिरों-मस्जिदों के नाम पर बन जाती हैं
कितनों की ज़िन्दगी
मंदिर को छोड़
समय के साथ कई-कई सम्भावनाएँ
नष्ट हो जाती हैं
कई-कई सम्भावनाएँ जन्मती हैं
हँसते क्रूर हँसी।
हत्या के पूर्व निर्धारित
कर दिया जाता है
निर्दोष होने का मापदण्ड
दोषमुक्त होना नहीं रह जाता
निर्दोष होने का एकमात्र विकल्प
और कई-कई बदलते वक़्त के पीछे
की गई कई-कई मौत के गवाह
एक हत्यारे की भर जाती है
पूरी-पूरी देह
सरकार समर्थित टैटूओं से
बदलते समय के साथ।

सर्वहारा

और सबने उसके साथ की ठानी
जिसका सब कुछ छीन लिया गया
भ्रष्टाचार में लिप्त पाए जाने पर

समाचार चैनलों के माध्यम
उसने कहा- मैं सब कुछ हार गया
सभी ने कहा- यही सर्वहारा है

रोते किसान का स्वर
भीड़ के समर्थन में खो गया।

संदेह इंसान को खा जाता है

संदेह इंसान को खा जाता है
इंसानियत को कर देता है तबाह
संदेह तबाह कर देता है समुचा घर
पूरी क़ौम तबाह कर देता है
अपनों को बना देता है अपनों का दुश्मन
सच मानिए मेरी हरेक बात
जैसे मेरी बात पत्थर पर उगी घास हो
पत्थर पर घास का उगना है साफ़ झूठ
झूठ मानने से
सच मान लेना अच्छा है,
संदेह कर सकता है लँगोटिया-मित्रता भंग
मेरे दोस्त,
झूठ को सच मानना चिरंजीवी कर सकता है
हमारी मित्रता
मेरे हिसाब से आँख नहीं बोलती झूठ
दिल दे सकता है दगा
अधिकार हनन के लिए
अधिकार के लिए
अधिकार के लिए बदल जाता है
मानवीय चरित्र
जिस्म जस के तस
बदल जाती है व्यवहारिक्ता
इंसानी देह से अलग हो जाता है इंसान
इस दौर में
जब हो रहा है सबकुछ पराधीन
बेलगाम घोड़े की तरह
जलवायु परिवर्तन की उमस में
उसनते इंसान का चेहरा नहीं बदलता
भीतर बची रहती है छाह ख़ुद की
आप में कितने बचे हो आप?
आपका मौन आपका स्वीकार
खोखले मानवतावाद का
पीछे आप कितना भी बोलें
नारों की चीख़ से भर दें कान
दिमाग़ की कोशिका झिल्ली में
फ़ीड कर दें आपके प्रति श्रद्धा भाव
बंदगी के लिये बंद कर दें सब दरवाज़े
नंगे जिस्म पर डाल दें कितने स्लोगन चस्पे अंगपोछे
नहीं पाएँगे आप मेरी ईबादत में जगह अन्ततः
सच मान लें देवता भी
खुले सूर्य के इजोत में
समर्थन की कोई बात नहीं होगी
जब नहीं रहे आप में आप
तब मैं चिल्लाकर कहता हूँ
ओजोन को साक्षी रख
मेरी भारतीय वायुमण्डल-सी पवित्र
आत्मा को साक्षी मान
मुझ में आज भी उतना बचा हूँ मैं जितना
गंगा में बची है गंगा
यमुना में यमुना बची है
एक नदी में बची है जितनी नदी
पवित्रता में बची है जितनी पवित्रता
देश में बचा है जितना सौहार्द्र
विश्वास में बचा है जितना संदेह
मुझ में मैं बचा हूँ
संदेह करने से अच्छा है
सच मानिए मेरी बात
समर्थन की बात दिन के उजाले
में क़तई सम्भव नही
चाँद सो जाने दीजिए, मेरे देवता।

यह भी पढ़ें: ‘एक खिड़की तो खुली रखनी चाहिए’

Recommended Book: