मैं मारी जाऊँगी
मैं उस भीड़ के द्वारा मारी जाऊँगी
जिससे भिन्न सोचती हूँ।
भीड़-सा नहीं सोचना
भीड़ के विरुद्ध होना नहीं होता है।
ज़्यादातर भीड़ के भले के लिए होता है
ताकि भीड़ को भेड़ की तरह
नहीं हाँका जा सके।
यह दर्ज फिर भी हो
कि
भिन्न को प्रायः भीड़ ही मारती है।
उस दिन खुल गयी चोटी
मैं विकल्प थी
कई सन्तानों में एक,
अपनी टीचर के लिए
कई विद्यार्थियों में एक
मैं गूँथी चोटी थी
उस दिन खुल गयी
जब मैं प्रेम में विकल्प बन गयी
शिक्षा
जिस पानी को दरिया में होना था
वह कूप, नल, पानी शुद्धिकरण
यन्त्र से कैसे बोतलों में बन्द हो बिकने लगी?
प्यास ज्ञान की इन बोतलों
से नहीं मिटने वाली,
दरिया को बचाना होगा।
संकुचन-
दिमाग़ी बौनों की भीड़ गढ़ गया
वे जो दौड़ रहे हैं पत्थर के बुत की ओर
इंसानों को रौंदकर
बताते हैं,
दरिया का विकल्प बोतलें नहीं होती।
निरंकुश
मैं एक प्राचीन जंगल का हिस्सा था
एक आदम जंगल का,
मैं गिद्धों की तरह
मृत शरीर का इंतज़ार करता था
और नोंच खाता था,
मृत्यु मेरा पेट भरती थी,
मुझे हर्षित करती थीं
रुदालियों के क्रन्दन से गूँजती दिशाएँ।
मैं रिक्त हृदय वाला
बेजान-सी भीड़ पर करता था
निरंकुश शासन।
प्रतीक्षा बाती
मैं दहक रही हूँ
माथे की क़ैद में फड़फड़ाते शोकगीत
बारिश की ठण्डी रात
में बोलते झींगुर और भीगते झूले
के आसपास
एक उदासी बैठी है
उसने अभी-अभी बुझायी है
बाती प्रतीक्षा की।
अरोरा
मैं जल रही थी
मेरी ताप किरणें टकरायीं उसके गुरुत्व से
कुछ चिंगारियाँ ध्रुवों पर करने लगी अठखेलियाँ
यह ध्रुवीय प्रकाश नहीं
ये गवाही हैं
प्रेम मे मेरे सूरज
और उसके पृथ्वी हो जाने की।
अफ़वाह
अफ़वाह है कि एक बकरी है
जो चीर देती है सींग से अपने, छाती शेर की।
ख़रगोश बिल में दुबका है,
बाघ माँद में डर से,
लोमड़ी और गीदड़ नहीं बोल रहे हैं कुछ भी।
पर एक जोंक है
बिना दाँत, हड्डी के भी रीढ़ वाली
वह चूस आयी है सारा ख़ून बकरी का।
कराहती बकरी कह रही है-
“अफ़वाह की उम्र होती है,
सच्चाई ने मौत नहीं देखी है
क्योंकि यह न घटती है, न बढ़ती है।”
मिथिला में
पीठार से अरपन बनाती औरतों की हर उँगली
क़लम होती है
वे आंँगन पर अपनी भाषा में स्वप्न लिखती हैं
जिसमें पान की आकृति का हृदय होता है
गहने, वन, लताएँ, पशु और जीवन रेखाएंँ होती हैं
वे उंँगलियों से लिखती हैं कुछ सुनी, कुछ अनसुनी कथाएंँ
जो आँगन का अन्तःस्थल जुड़ा देती हैं
इन औरतों की आँखों में इतने सुन्दर स्वप्न
और हाथों में ऐसा हुनर कहाँ से आता है?
बारिश
उन दिनों बारिश नमक-सी हुआ
करती थी
अब ऐसी फीकी
या
इतनी तेज़ कि ज़ायका बदल
गया ज़िन्दगी का
पेड़ पर लटकी उन हरी जानों
ने फीका नमक चखा होगा
उन बहती हरी लाशों
ने तेज़ नमक में जीवाणु से मरते
स्वप्नों को अलविदा कहा होगा।
उपला
छत्तीस साल शादी के,
इश्क़ तो नहीं था।
ज़रूरत
जो थोपी गयी,
जैसे उपला दीवार पर।
खंजन चिड़िया
चौमुख दिये के पास रखा है
वह दूधपीठी का भगोना
साँझ सुगबुगायी है
ये खंजन चिड़िया कहाँ से आयी है?
चोंच रस में डुबोया तीन बार
उड़ गयी पोखर के उस पार!
क्या चखा खंजन ने?
ईख, धान, दूध, पानी का स्वाद
क्या महसूस किया उसने?
खेत, गोशाला, कुआँ या रसोई की गन्ध।