Poems: Arun Sheetansh
मृत्यु की बारात
भूख-प्यास से तड़पते
आँतों को सिकुड़ते
किसी न किसी रूप में
देखा है हमने
शहर के छोर पर
दो बच्चे रो रहे हैं
दो बच्चे जाग रहे हैं
जो जाग रहे हैं वो रो रहे हैं
जो रो रहे हैं वो मर रहे हैं
न कोई बाप न कोई माँ
बस हत्यारा समय हावी है
बच्चों पर इन दिनों
राजनीति के गलियारों में
जबकि हो रहा है एलान
अन्न बाँटने का
कपड़े बाँटने का
इधर ठण्ड से काँप रहा करेजा
कब हथेलियों में आ जाएगा!
खुर
घर में धान आते ही
बैलों के खुर याद आए
हल चलाते समय गधबेर में कट चुका था
गोहट मारना बाक़ी था
खुर
ख़ून से लथपथ था
धान से चावल निकालते वक़्त
खुर की गंध नथूनों में भर गई
चट से चावल बेच
मेहंदिया से दवा ली
घायल खुर से
देश घायल हो रहा है
देश में ख़ून तो ऐसे ही बह रहा है
खुर से ख़ुद परेशान हूँ
और हमारा घर भी
कल फिर धतूरे और गेंदे की पत्तियों के रस चुआकर खुर ठीक किया
अगले साल के लिए
घर में थोड़ा चावल
और गेहूँ बचाकर रखा है
महुआ परसो बेच दूँगा
तीसी घर की लड़की के लिए रखी है
बेचकर रिबन के लिए।
अब मास्टर जी नहीं मारेंगे बेटी को
खुर की गंध देश देशांतर में फैल गई है
संयुक्त राष्ट्र में नहीं पहुँची अब तक
कोफ़ी अन्नान मर भी गए कल
उनके रंग के धान उपजा लेगें
निकलेगा बासमती चावल
तसला पीट-पीटकर बजाकर डभका देगें भात
बच्चे शोर मचाकर खा जाएँगे
कटोरे के कटोरे
खुर का दु:ख भूल जाएँगे
देश का दुःख कैसे भूलेंगे लोग!!
साइकिल
घर में साइकिल है
पहले दुकानदार ने रखा था
आज मेरे पास है
पैसे वैसे की बात छोड़ दीजिए
साइकिल है मेरे पास
रोज़ साफ़ करता हूँ
उस पर हाथ बराबर रखता हूँ
सुबहोशाम निहारता हूँ
साइकिल को धोता हूँ
चलाता नहीं हूँ
रोज़ उस पर स्कूल-बैग टँगा रहता था
बाज़ार से लौटती थी बेटी
तो घर लौट आता था जैसे
अब नहीं जाती
एक सब्जी भी लाने
टिफ़िन के रस नहीं लगते चक्के में
वह चुपचाप खड़ी है
उसे गाँव नहीं जाना
हवा-सी चलती
और उड़ती साइकिल
हवा से ही बातें करती
साइकिल की पिछली सीट पर एक काग़ज़ की खड़खड़ाहट सुनायी देती है
उसमें लिखा है- ‘पापा! इस साइकिल को बचाकर रखना
किसी को देना नहीं।’
साइकिल को बारह बजे रात को भी देखता हूँ
कल डव सैम्पू से नहलाऊँगा
साइकिल कम बेटी ज़्यादा याद आयेगी
देखकर आया हूँ- आपके पास से।
थोड़ी देर हो चुकी है
एक खिलौने को रखने में
वह खिलौना नहीं, जीवन है
जीवन की साइकिल है…l
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