Poems: Arvind Kumar Khede
अपने सफ़र पर
कुछ नहीं है मेरे झोले में
सिवाय कुछ दुआओं के
कुछ बद्दुआओं के
दिन भर जो कमा कर लाता हूँ
रात को ही करनी पड़ती हैं अलग-अलग
आहिस्ता से सहेज कर
रखता हूँ दुआओं को अलग
बद्दुआओं की गठरी बनाकर
सिरहाने रख सो जाता हूँ
पौ फटते ही दुआओं को
डाल देता हूँ आकाश में
चोंच भर दानों की तलाश में
पेट लिए
उड़ान भरने को निकले पंछी
चुग लेते हैं हाथों-हाथ
आज की रात
और अगली सुबह के लिए
झोला लेकर मैं चल पड़ता हूँ
अपने गंतव्य पर
अपने सफ़र पर
कुछ नहीं आएगा हाथ हमारे
जो भी सच है
भला या बुरा
ख़ुदा करे
इसी अँधेरे में दफ़न हो जाए,
वर्ना टूटेगी हमारी धारणाएँ
और गुम हो जाएँगे हम इन अँधेरों में।
जो भी कहा-सुना गया है
अच्छा या बुरा
ख़ुदा करे
विसर्जित हो जाए,
वर्ना जन्म देगा एक नए विमर्श को।
अपनी तमाम बौद्धिकता को धता बताते हुए
कूद पड़ेंगे हम अखाड़े में।
तुम अपना सच रख लो
मैं अपना झूठ रख लेता हूँ,
वर्ना इस नफे-नुकसान के दौर में
कुछ नहीं आएगा हाथ हमारे…
मैं कर लेना चाहता हूँ
मैं जहाँ तक पहुँचा हूँ
इसी सीढ़ी को वेदी बनाकर
मैं करना चाहता हूँ अपनी अरदास।
इससे पहले कि
क्षीण हो जाये मेरा आभामण्डल
आत्ममुग्धता के घेरे से
दूर निकल जाना चाहता हूँ।
यह आत्म-प्रवंचना का समय है
यह समय तय करेगा
मेरा शेष भविष्य।
अतीत की मज़बूत नींव पर
कब तक खड़ी रहेगी मेरी यह गढ़ी।
इस महाशून्य में
कौन होगा मेरा सहचर।
अपने पुरुषार्थ के अनुपात से अधिक
जो मैंने पाया है या हथियाया है
क्षमा याचना सहित
लौटा देना चाहता हूँ सादर।
इतना बचाकर रख सकूँ
मैं अपना नैतिक साहस
कि अपने पराभव का कर सकूँ
संयम के साथ सामना।
यहीं इसी सीढ़ी को वेदी बनाकर
मैं कर लेना चाहता हूँ अपनी प्रार्थना।
कालिख
वह साँवली-सी लड़की
जो दिखायी देती है
इर्द-गिर्द
कचरा बीनते हुए,
उजले चेहरों पर
कालिख पोत जाती है।
ज़िन्दगी
ये ज़िन्दगी का ख़ौफ़
ये मौत का डर
किसी और को
दिखाना बाबू,
एक मुफ़लिस के लिए
ज़िन्दगी क्या
और ज़िन्दगी का मोल-भाव क्या,
जिएँ तो मुरदे की तरह
और मरे तो
गुर्दे के लिए।
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