‘कहीं नहीं वहीं’ से कविताएँ
सिर्फ़ नहीं
नहीं, सिर्फ़ आत्मा ही नहीं झुलसेगी
प्रेम में
देह भी झुलस जाएगी
उसकी आँच से
नहीं, सिर्फ़ देह ही नहीं जलेगी
अन्त्येष्टि में
आत्मा भी भस्म हो जाएगी
प्रेम हो या मृत्यु
ऐसी कोई पावक नहीं
जो सिर्फ़ आत्मा को जलाए
या सिर्फ़ देह को!
अंगीकार
जब वह अपने ओंठों पर
चुम्बन की प्रतीक्षा कर रही थी
वसन्त ने चुना स्पर्श के लिए
उसके बाएँ कुचाग्र को
जब वह अन्यमनस्क थी
उसके आर्द अँधेरे में प्रवेश किया
एक धधकते पुष्प की तरह
वसन्त ने
जब वह अपने लावण्य में
परिपक्व थी
उसके बखान में
ठिठका रह गया
एक शब्द की तरह
वसन्त
स्वीकार के बाद
चकित वसन्त ने
उसे किया बहुधा अंगीकार।
सुख ने अपनी जगह बदली
जहाँ-जहाँ सुख है
उसके तन में
उसके मन में
वहाँ-वहाँ
उसने उसे छुआ।
अपने अंगों से
अपनी देह से
अपने शब्दों से
अपने मन से।
छूने में सुख था
छुए जाने में सुख था
नहीं था अनछुए रहने
रहने देने में—
सुख ने अपनी जगह बदली
फिर भी वहीं रहा
जहाँ पहले था—
तन में, मन में।
शेष
सब कुछ बीत जाने के बाद
बचा रहेगा प्रेम
केलि के बाद शय्या में पड़ गयी सलवटों सा,
मृत्यु के बाद द्रव्य स्मरण सा,
अश्वारोहियों से रौंदे जाने के बाद
हरियाली ओढ़े दुबकी पड़ी धरती सा
गरमियों में सूख गए झरने की चट्टानों के बीच
जड़ों में धँसी नमी सा
बचा रहेगा
अन्त में भी
प्रेम!
अशोक वाजपेयी की कविता 'कितने दिन और बचे हैं'