छोटा पीला फूल
जिन छोटे-छोटे फूलों का
हम नाम नहीं जानते
अवसाद के क्षणों में
घास, झाड़ी या पत्तियों में से
उँगली बढ़ा
वही हमें थाम लेते हैं
घास में उगे
उस पीले फूल को देखकर
तेज गति से चलता हुआ
मैं अचानक रुका
किसी पावर ब्रेक वाली गाड़ी की तरह
एक और छोटा-सा पीला फूल
मैंने देखा था
अपने घर की क्यारी में
अब दोनों फूल मुझसे मुख़ातिब थे
तस्वीर लेने के स्वार्थ में
हाथ से पकड़कर
मैंने नियन्त्रित नहीं किया
फूल का हवा को सूँघना
अलमस्त झूमना
क़रीब से उसे बिना देखे
स्मृति में सहेजे बिना उसे
अपनी राह चलते जाना
व्यर्थ हो जाना था
छोटे-से जीवन का—
फूल के नहीं
मेरे!
प्रेम क्लीषे?
किसी भी उम्र में
प्रेम नाम की घटना की शुरुआत
उन्हीं फ़िल्मी गीतों से होती है
जिन्हें सुनता रहा
जवान होने के दौरान
कच्ची उम्र से दिखती है
वही मनीषा कोइराला
हँसती हुई, झूला झूलती हुई
कमबख़्त, हर बार होता है प्रेम मुझे
हँसी और आँखों से
रंग और आकार बदलता रहता है आँखों का
बहुत कुछ एक जैसा होता है हर बार
इतने पर भी प्रेम का ढंग
क्लीषे मुझे कभी नहीं लगा।
दिलचस्प इकहरे विषय
शुरुआत और अन्त
सबसे ज़्यादा इकहरे विषय हैं प्रेम के
फिर भी उन्हीं पर लिखता हूँ हर बार कविता
बीच की घटनाओं का समुच्चय
महाकाव्य या उपन्यास का मसौदा है
मैं क़ाबिलियत नहीं रखता दोनों ही लिखने की
(फ़िलहाल?)
फिर भी
लम्बी छुट्टियों के बाद खुली थी यूनिवर्सिटी
कई ऋतुओं के बाद लौट आया था वसन्त
वे कुछ लड़कियाँ थीं
संख्या में ऋतुओं जितनी ही
जो वसन्त का पर्याय हो सकती थीं
लौट आया था मेरा कवि, जिसने सोचा—
कितने लड़कों के अधूरे ख़्वाब जा रहे हैं
थोड़ी देर बाद
वे रुकी कहीं
उनसे आगे निकल गया मैं
देखता हुआ
लड़कियों के चेहरों पर मास्क
जिनमें से खिलखिला रही थीं वे
मुझे याद आए दिन
दोस्तों के साथ तफ़रीह के
मैंने ज़ोर से चिल्लाकर कहा—
ख़ुश रहो तुम सब!
मैं नहीं मानता ख़ुद को
आशीर्वाद देने लायक़ उम्रदराज़
फिर भी…।
आंशिकता में पूर्ण
जा रहे थे म्यूज़ियम से बाहर
एक-दूसरे को सहारा देते
वे दृष्टि-बाधित स्त्री-पुरुष
टटोलते हुए एक पूरा रास्ता
मिलाकर
अपनी-अपनी आंशिक दृष्टि
हज़ारों वर्षों का इतिहास
भीतर भरा था
रॉयल ब्रिटिश कोलम्बिया म्यूज़ियम के
पर सभ्यता के सबक का निचोड़
जिसे लोग नहीं देख पाए
वह अबाधित साहचर्य
सरक रहा था
वहाँ से बाहर
चुपचाप…
देवेश पथ सारिया की कविता 'ईश्वर को नसीहत'