Poems: Nidhi Agarwal
मैं तुम और वो
मैं तुम्हारे प्रेम में थी
तुम मेरे प्रेम में,
और एक ‘वह’ भी
तुम्हारे प्रेम में थी।
आह, मैं मिली तुमसे
जब सीख चुकी थी
मन पर नियंत्रण के सारे हुनर,
कमा चुकी थी दुनिया की नज़रों में
कुछ मिथ्या सम्मान।
और वह थी एक अबोध शिशु-सी
स्त्री द्वारा आगे बढ़ पुरुष का
हाथ थाम लेने पर,
जग की आत्मा भेदती
नज़रों से अनजान।
जग प्रपंचनाओं से अनछुए
उसके मानस पटल ने,
सुनिश्चित कर दी थी उसकी जीत।
उसने सहज ही कर दिया लयबद्ध
जो मेरा हो सकता था मधुर गान।
सयानों को सुलभ ही नहीं प्रेम
किरचन किरचन हो बिखरा…
मेरा अर्जित अभिमान।
मौन का नाता
जब कहने को कुछ न हो
तब मौन कोई विकल्प नहीं
अनिवार्यता होता है।
तुम्हारी धड़कनों के अतिरिक्त
मैंने कब सुनी है कोई आवाज़?
तुम्हारी बाहों के बाहर के जगत
से अनभिज्ञ हूँ मैं
और इन दो बाहों के मध्य
जो महसूसती हूँ मैं
उनसे कब अनजान हो तुम।
तभी ईश्वर ने मिटा दिए
हमारे मध्य के
मिथ्या सभी संवाद!
तुम्हारा होना
तुम्हारा होना…
ज्यों मरु में बह चले
कोई मीठा झरना
ज्यों आँखों में देता हो
मृदुल स्वप्न नित धरना।
ज्यों केशों में सज जाए
बरखा के मोती
ज्यों बुझती आँखों को
मिल जाए नव ज्योति।
ज्यों नव पल्लव को छूती
ओस की बूँदें
ज्यों सोती पलकों को
माँ हौले से चूमे।
ज्यों बच्चे की मुट्ठी में
मीठी कोई गोली
ज्यों मन के बियाबान में
नटखट कोई टोली।
ज्यों विकल अमावस में
उग आया हो चाँद
ज्यों निर्जीव देह में
लौट आए फिर प्राण।
ज्यों अधरों पर अटकी हो
मृदु सुधियों की स्मित
ज्यों अस्तित्व तुम्हारा हो
बस मेरे ही निमित्त।
तुम्हारा होना…
सत्य है उतना
मेरी कल्पनाओं का
अलक्षित आसमान
विस्तृत है जितना…
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