लौटना

खण्डित आस्थाएँ लिए
महामारी के इस दुर्दिन में
हज़ारों बेबस, लाचार मज़दूर
सभी दिशाओं से
लौट रहे हैं
अपने-अपने घर

उसने नहीं सोचा था
लौटना होगा कुछ यूँ
कि वह लौटने जैसा नहीं होगा

उसने जब भी सोचा लौटने के बारे में
लौटना चाहा
मनीऑर्डर की तरह

वह लौटना चाहता था
लहलहाते सरसों के खेत में ठुमकते हुए पीले फूल की तरह

वह लौटना चाहता था
सूखते कुँए में पानी की तरह

वह लौटना चाहता था
अपने कच्चे घर में पक्की ईंट की तरह

वह लौटना चाहता था
लगन के महीने में
मधुर ब्याह गीत की तरह

वह लौटना चाहता था
चूल्हे की आँच पर पक रहे पकवान की तरह

वह लौटना चाहता था
क़र्ज़ के भुगतान की तरह

वह लौटना चाहता था
पत्नी के खुरदुरे पैरों में बिछुए की तरह

वह लौटना चाहता था
उसी तरह, जैसे
छप्पर से लटकते हुए बल्ब में लौटती है रौशनी अचानक

उसने नहीं सोचा था
कभी नहीं सोचा था
लौटना होगा कुछ यूँ
कि वह लौटने जैसा नहीं होगा…

थपकियाँ

बे-नींद भरी रातों में
मुझे अक्सर याद आती हैं
नानी की थपकियाँ

उन हथेलियों को याद करते हुए
मेरी दायीं हथेली
अनायास ही बिस्तर पर
थपकियों की मानिन्द उठती और गिरती है

थपकियाँ
स्त्रियों द्वारा बुना गया
आदिम संगीत है
जिसकी धुन पर नींद खींची चली आती है…

देखना

1

मैंने तुम्हें देखा
जैसे हर खेतिहर देखता है
सर उठाकर बादल को

2

मैं तुम्हें अब भी देखता हूँ
लेकिन मेरा देखना
कुछ-कुछ वैसा ही है
जैसे रोज़ का अख़बार देखना।

गौरव भारती
जन्म- बेगूसराय, बिहार | संप्रति- असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, मुंशी सिंह महाविद्यालय, मोतिहारी, बिहार। इन्द्रप्रस्थ भारती, मुक्तांचल, कविता बिहान, वागर्थ, परिकथा, आजकल, नया ज्ञानोदय, सदानीरा,समहुत, विभोम स्वर, कथानक आदि पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित | ईमेल- [email protected] संपर्क- 9015326408