Poems by Gaurav Bharti

वह बीड़ी पीता है

मैनपुरी के किसी गाँव की किसी गली का
वह रिक्शा चालक
बीड़ी पीता है

नब्बे पैसे की एक बीड़ी
मेरे सिगरेट से लगभग सोलह गुनी सस्ती है

पैडल पर पैर जमाते हुए
वह बीड़ी के फ़ायदे बताता है और
बड़े शहर में छोटी-छोटी बातें करता है
जिसे मैं उसके वक्तव्य की तरह नोट करता हूँ

बड़े-बड़े पीलरों के ऊपर
जहाँ मेट्रो हवा को धकियाते हुए सांय से गुज़र जाती है
उन्हीं पीलरों के नीचे से
रिक्शा का हैंडल मोड़ते हुए
वह मुझे वहाँ तक पहुँचाता है
जहाँ वक़्त लेकर ही पहुँचा जा सकता है

सिगरेट की कशें लेते हुए
मुझे उसका ख़्याल आता है
और मैं सोचता हूँ-
इंसानों को बीड़ी की तरह सस्ता, सहज और उपलब्ध होना चाहिए!

पेंडुलम

मैं जब भी याद करता हूँ
पिछली मुलाक़ात
मुझे गुलाब और बोगनवेलिया एक साथ याद आते हैं

सच कहूँ
तुम्हारे सवाल
इतने वज़नी होते हैं कि
इधर-उधर ताक कर
मैं बचने के उपाय ढूँढने लगता हूँ
और तलाशने लगता हूँ
वही खण्डहर
जहाँ मेरे पूर्वजों ने दफ़्न किये थे तुम्हारे सारे सवाल

मैं चाहता था
छोड़ आऊँ तुम्हारे सारे सवाल उसी बैंच पर
और तुम्हारे माथे को चूमकर
तुम्हें अलविदा कहूँ
मगर कल और आज के बीच
नींद और ख़्वाब के बीच
झूल रहा हूँ मैं
मानों कोई पेंडुलम…

बीच सफ़र में कहीं

ठहरकर
रिहा करता हूँ
ख़ुद को कल से

ठहरकर
तय करता हूँ
अगला पड़ाव

ठहरकर
देखता हूँ भागती हुई भीड़
और नज़रें फेर लेता हूँ

ठहरकर
टटोलता हूँ ख़ुद को
और पाकर ख़ुश होता हूँ
बीच सफ़र में कहीं …

दीवारें

घने अँधेरे कमरे में
तपती गर्मी में नमी तलाशते हुए
दीवार से लगकर
सोता हूँ

थोड़ी देर बाद
देखता हूँ –
दीवारों की भी एक दुनिया है
जहाँ हज़ारों रंगी पुती दीवारें
आपस में बातें करती हैं
एक बड़ी ऊँची दीवार
छोटी दीवारों को अपने नीचे देख ख़ुश होती है
छोटी दीवारें सर उठाकर देखती हैं
फिर सर झुका लेती हैं
मानों उनका आकाश गिरवी रखा हो

और भी कुछ दीवारें हैं
जो मुन्तज़िर मालूम होती हैं
सबकुछ देखते-सुनते हुए भी ख़ामोश
हाँ, ये वही दीवारें हैं
जिन्होंने कई दफ़ा आत्महत्याएँ रोकी हैं

मैं सुनना चाहता हूँ
इन दीवारों को
इनके साथ बतियाना चाहता हूँ
मैं चाहता हूँ ये बोलें
उसी तरह जैसे बल्लीमारान की गलियों में खड़ी दीवारें बोलती हैं

मैं चाहता हूँ
इनका हाथ पकड़कर
घुमा लाऊँ इन्हें ख़ूबसूरत, निश्छल और सजीव पहाड़ियाँ
ताकि लौटकर ये बड़ी दीवारों का दम्भ तोड़ सकें
और लौटा सकें
छोटी दीवारों को उनके हिस्से का आकाश…

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गौरव भारती
जन्म- बेगूसराय, बिहार | संप्रति- असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, मुंशी सिंह महाविद्यालय, मोतिहारी, बिहार। इन्द्रप्रस्थ भारती, मुक्तांचल, कविता बिहान, वागर्थ, परिकथा, आजकल, नया ज्ञानोदय, सदानीरा,समहुत, विभोम स्वर, कथानक आदि पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित | ईमेल- [email protected] संपर्क- 9015326408