Poems: Gaurav Bharti
गुमशुदगी से ठीक पहले
शहर मुझे दीमक सा खाए जा रहा है
मैं लगातार ख़ुद को बचाने की नाकाम कोशिश में जुटा हूँ
गणित ने ज़िन्दगी के तमाम समीकरण बिगाड़ दिए हैं
आईना मुझे पहचानने से इंकार करने लगा है
बग़ल वाले कमरे में बच्चा रोज़ रात भर रोता रहता है
मुझे थोड़ा सा अँधेरा चाहिए
यहाँ फ़िज़ूल की रौशनी बहुत है
मैं लुकाछिपी का खेल खेलना चाहता हूँ
लेकिन यहाँ छुपने की जगह नहीं है
बहत्तर सीढ़ियाँ चढ़कर
मैं पाँच मंज़िले मकान की छत पर जाता हूँ
मगर चाँद धुँधला नजर आता है
मुझे अपनी आँखों पर शुबहा होने लगा है
मैं लौटता हूँ
अपनी स्मृतियों में
और इस तरह ख़ुद में लौटता हूँ
मैं याद करता हूँ तुम्हें
और इस तरह ख़ुद को याद रखता हूँ…
यात्रा
जब कभी भी
तुम्हारी उँगलियों के बीच के फ़ासले को
मैंने अपनी उँगलियों से भरा है
मुझे हर बार लगा
हमनें एक यात्रा पूरी की है…
आदमी
मैंने भी माँगी थी दुआएँ
मूँदकर अपनी पलकें
टूटते हुए सितारों से
कई दफ़ा
ऐसी बचकानी हरकतें अब नहीं करता
नहीं करता क्योंकि
अब बच्चा नहीं रहा मैं
शायद एक उम्र होती है
जिसे लाँघ आया हूँ
थोड़ी तमीज़
थोड़ा अदब सीख आया हूँ
मैंने सीख ली है
चालाकियाँ
जो आदमी होने की पहली शर्त है
मैं लिबास भी आयोजन के हिसाब से पहनता हूँ
रंग भी उसी को ध्यान में रखकर चुनता हूँ
अपनी सहूलियत के हिसाब से
झण्डा उठा लेता हूँ
नारेबाजी भी कर लेता हूँ
किरदार बदल लेता हूँ
समीकरण जो अब तक गणित का हिस्सा था
ज़िन्दगी में उसके मायने समझने लगा हूँ
समझने लगा हूँ
झुकने का मतलब
बूझने लगा हूँ
हँसी के प्रकार
तितलियों को छोड़
भीड़ की तरफ भागता हूँ
तलाशता हूँ मंच
ओढ़ता हूँ तमीज़
थोड़ा मुस्कुराता हूँ
आदमी हो जाता हूँ…
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