Poems by Himanshu

मेरे आस-पास कोई नदी नहीं बहती

1

मेरे आस-पास कोई नदी नहीं बहती
जिससे कि मैं सुन सकूँ
उसका वह संगीत, जो मैंने सुना है
माँ से, पिता से, अम्मा से,
और न जाने कितनों से अब तक!
मैं जहाँ रहता हूँ
पहाड़ी का वह शीर्ष भाग है
धूप मखमली चादर-सी सरक जाती है,
औ’ मोटे कम्बलों में बीतता है सारा दिवस!
यहाँ से दिखायी पड़ते हैं
पहाड़ियों के शीर्ष, हिम की शृंखलाएँ
सूर्य, मेघ के दल औ’ असंख्य तारकाएँ!

2

कुछ अधिक ठहरता है पावस
इस छोटे पर्वत प्रदेश में!
छोटी-बड़ी न जाने
कितनी ही मेघ लड़ियाँ
झरती हैं देर तक झर-झर
और सारा का सारा जल
बह जाता है नीचे की ओर
छल-छल कर तन्मय बजकर
सुना है, वहाँ नीचे एक नदी है!
हृदय में रह-रह कामना जगती है
कि मैं भी सुन सकूँ
कल-कल की ध्वनियों का संगीत!
जो बजता होगा पूरे सरिता तट पर
और जिसके उन्माद में देवदूत
क्रीड़ा करते होंगे देर तक, रात्रि-भर!

3

नदी तक जाना सरल नहीं है!
मेरे और नदी के बीच एक
पूरा का पूरा पहाड़ है,
विशाल भुजाओं वाला!
पावस की छोटी-बड़ी जलधारों से
जब सारा संगीत छप-छपकर
छलकता हुआ जाता है नदी की ओर
तब कुछ संगीत सोख लेता है पहाड़!
पहाड़ों के भीतर ही भीतर
छनता, बजता, रिसता यह संगीत
छलक पड़ता है किसी जलस्रोत से
मिट्टी में दबी पत्तियों के सहारे
पत्थरों के छोटे से जलकुण्डों में!
उनके टिप-टिप की मधुर ध्वनि में
मैं आभास कर पाता हूँ नदी को
और लिपटकर सो जाता हूँ
अपने प्रिय पहाड़ से!

फिर प्रेम उमड़ता है

फिर प्रेम उमड़ता है
सरसता के भाव से
प्रिय! नेत्रों में तुम्हारे,
और मेरे लोचनों में
उतर आता प्रेम अक्षय
भाव के घूँघट सहारे!
मेरे रोम-रोम से सहस्त्र नेत्र,
जाग्रत हो उठते एकाएक,
और देखते हैं तुम्हें,
एकटक!
यह प्रेम जिसका आधार हो तुम
नचाता है मुझे
बेसुध!
जैसे पृथ्वी झूमती है
अपनी धुरी पर
सतत!

हे पिता! यह सब तुमने कैसे किया?

तुमने जो खोया,
मैंने पाया–
नींद, भूख, सुख!

तुमने जो सहा,
मैंने कहा–
भय, पीड़ा, दुःख!

तुमने जो लिया,
मैंने दिया–
धैर्य, चिंता, त्याग!

तुमसे जो दूर हुआ,
मैंने छुआ–
प्रेम, हर्ष, सुभाग!

हे पिता! यह सब तुमने कैसे किया?