स्पन्दन
कविता हर आदमी
अपनी
समझ-भर समझता है
ईश्वर एक कविता है!
मोमिन
पूजाघर पहले भी होते थे,
हत्याघर भी
पहले होते थे
हमने यही प्रगति की है
दोनों को एक में मिला दिया।
आदिम सवाल
जब तुम पैदा हुए थे
तब नहीं पूछा क्यों,
जब तुम मर चुके होगे
तब नहीं पूछोगे क्यों
फिर ये बीच की अवधि में
क्यों क्यों क्यों?!
अन्ततः
शरीर सहयोग
नहीं करता
अन्यथा
कोई क्यों मरता?
उभय तर्क
कमज़ोर होने
का एक ही लाभ है—
मार ख़ूब खाने को
मिलती है…
देखा नहीं सूखी
घास को
कितने धड़ल्ले
से जलती है!
समागम
सभी कुछ बदलता है
अपनी रफ़्तार से
सिर्फ़ नदी ही नहीं
पहाड़ भी
चूर-चूर होकर बहता है
नीचे
नदी की छाती से लगा हुआ।
कैलाश वाजपेयी की कविता 'मुझे नींद नहीं आती'