कुछ कविताएँ
कुछ कविताएँ
जो शायद कभी लिखी नहीं जाएँगी
वे हमेशा झूलती रहेंगी
किसी न किसी दरख़्त की छाँव में,
वे कविताएँ पीड़ाओं के रास्ते से
कभी काग़ज़ तक नहीं आ पाएँगी
जिनमें छिपा है अनेकों समुद्रों-सा खारा जल
जो कभी पिया न जाएगा
और न ही कभी मीठा हो पाएगा।
कुछ आवाज़ें जो कभी नहीं उठेंगी
वे हमेशा लटकी रहेंगी
किसी न किसी देड़ी से,
इन कपड़ा लपेटी बोतलों का पानी
कभी ख़त्म नहीं होगा
ये हमेशा भरती जाएँगी स्नेह से,
दिल्ली के शहरी कानों तक
नहीं पहुँचेंगी ये आवाज़ें
जब भी उठेंगी ये कुछ तेज़ हो
तत्काल दबा दी जाएँगी।
आधुनिकता का सुनहरा चाँदना
उन गलियों से कभी नहीं गुज़रेगा
जहाँ मेहनतकश लोगों का बसेरा है,
दूर देशावर तक सिमटे हैं रेतीले धोरे
उन हाथों की रोटियों का स्वाद
दिल्ली के दरिंदे कभी नहीं चख पाएँगे
जिस आटे में पानी के साथ घुला है
सदियों से सँजोए थार का पानी।
लोक का पानी
मैनें लोक श्रुतियों से बचाकर
हांडी में रखा है पानी
यह पानी कभी नहीं सूखेगा
इसके मानिंद इसकी खोज में
जब भी रेगिस्तान से गुज़रेंगे
मैं ये प्रेम जल मनुहार स्वरूप
चुपके-से नेत्रों में भर दूँगा।
लोक सम्वादों के ऊजळे चरित्र
नायक-नायिकाओं के सपने हैं
जिनकी तलहटी में स्याह अंधेरा पसरा है
कण-कण रिसकर जब ये सम्वाद
बहुत दूर तलक अपनी महक बिखेरेंगे
तो मुझे चैन हो जाएगा
मैं भोगूँगा ठीक उसी वक़्त अतिथि सुख
लोक व्यवहार के आँचल में।
लोक अमरत्व को गढ़ना जानता है
वो जानता है कि थोथे शब्द
परिश्रम से नहीं सींचे जाते
उनमें स्वेद सुगंध नहीं होती
वे आँचलिकता से कोसों दूर
सिर्फ़ मृगतृष्णा होती है।
यथार्थ से सामना
किसी रोज़ अगर यकायक
मेरा सामना हुआ अनायास ही
किसी सच से
तो मैं क्या मुख दिखाऊँगा
क्योंकि यथार्थ को झुठला
किसी कल्पना को संजोकर
आख़िर मैं कब तक जीवित रहूँगा?
रेत से बने महलों का सुख
धूप-छाँव से लड़कर
अंधी ऊजड़ आंधियों से उलझकर
आख़िर मैं बचा भी तो नहीं पाया।
शब्दातीत संसार की सुरम्य साँझें
मुझमें घुट-घुटकर मर गईं
लेकिन मेरा साहस न हुआ कि
किसी नड़ और अलगोजे के सुरों को
मैं धोरा-धरती से दूर
अपने हृदय में खोल सकूँ।
अगर युग न्याय करेगा तो
सबसे बड़ा अपराधी मैं बनूँगा।
मैं आँख से आँख मिला
ढोंग करता रहा
अपने होने का
मुझसे मेरा लोक छिन गया
मैं कुछ न कर सका
निहारता रहा एकटक
निर्बल और अभागी दृष्टि से
हाय! इन सबसे पहले
मर जाती मेरी चेतनता
कितना अच्छा होता
कितना अच्छा होता!
वक़्त का सच
उस वक़्त का सच
कितना विलक्षण होगा
एक समय के दरम्यान
जब जान लोगे
बेरुख़ ज़माने को,
प्रवाहित हो निकलेगी
भावों की मरू मंदाकिनी,
ठीक उसी दौर के दौरान
बेजान पत्थर अट्टहास करेगें और
तुम अनजान होने का नाटक।
तुम्हारा हर एक उपक्रम
बन जाएगा कभी न कभी
अपनी ही शर्मिंदगी का कारण
तो तुम समझ जाओगे
वक़्त के पहिये को,
अदालत अंधी और
जज गुनहगार हो जाएगा।
हर वो कारवाँ जो ले जाएगा तुम्हें
संसार की सुरमयी छटा की ओर
तुम झाँकते रह जाओगे
अपने ही आप को
सृष्टि की सैर करते
तुम सहज ही देख लोगे
अपने से विशाल और बुद्धिजीवी
शमसान की शाम में
दर्प का दर्पण
शीघ्र ही खनककर टूट जाएगा।
अक़्ल औक़ात में आ जाएगी
और आबरू आँख से न निकलेगी
तुम्हें सौगंध है वक़्त की
उस वक़्त को बेवक़्त न होने देना
फिर कहाँ फिरोगे?
इस दिखावटी चोग़े के साथ
झूठी शान की फटी जेब लिए।
सृष्टि के कथित सुख की खोज में
अपने अंतर्मन को देखना
सारे सद्गुण और अवगुण
यहीं तो बैठे हैं
मुँह फुलाए हुए
किसी ने ध्यान ही न दिया
इनकी ओर कभी।
बीते कई दिनों के बाद
बीते कई दिनों के बाद
आज मौन भंग हुआ
कीर्ति-सज्जित कालखण्ड से
अश्रु-धार बह गई
रुदन के घर्घर नाद से
चीख़ता है काव्य मेरा
सुन ले चीख़ आहटों की
धर सकी न चुप्पियाँ जो
मौन-मुख न रख सकीं।
देखता हूँ दरबदर
थिरक रही हैं ठोकरें
लहू नदी ज्यों बह रही
पनपती हैं नित मवाद
कह न सकता मैं जिसे
मुख-मलिन न कर सकूँगा
आज कुमकुम के पगों पर
मिट्टी गहरी फिर चुकी है
मैं अकेला क्या करूँ।
गाँव आ गया अचानक
झोंपड़ी हँसती है मुझ पर
उलाहने हैं आँकड़ों के
टूळीयों से यूँ लिपटकर
जाळीयों से कहता हूँ मैं
खोजता है मन बहाने
है यही नियति का लेखन
किन्तु आँसू झर रहे हैं
भर चुकी अब गोद मेरी।
सोचता हूँ खेत देखूँ
हो चुका है जो बिछोही
याद होगा मुख भी मेरा
या कि सब सिर्फ़ याद रह गयी
बरस तक जिस खेत ने ही
मुझको पाल पोसकर
शहर की राहें दिखायीं
किंतु मैं ही भूल बैठा
शहरी बाबू बन गया जो।
मेड़ पर निशान है
झुकी हुई है बोरड़ी
स्नेह-सम्बल थी यही फिर
आज जैसे रो रही है
देखकर मुझको अचानक
हर्ष से लहरा उठी वह
एक ठंडी पवन के संग
आशीष मुझको सौंपती है
हिल-हिलाकर प्रेम से
आनंद मेरा पूछती है।
कमल सिंह सुल्ताना की कुछ अन्य कविताएँ