Poems: Kriti Baranwal

तलाश

मैं लिखना चाहती थी दुनिया की सबसे सुन्दर कविता
मैंने ‘तुम’ लिखा।
तमाम धरती-आकाश, इतिहास-भविष्य की कल्पनाएँ पार कर
मैंने खोजना चाहा ख़ुद को।
दुनिया की सबसे ऊँची जगह की ऊँचाई
और सबसे नीची जगह की गहराई नापने के बाद
मैंने चुने मैदान।
ख़ुद के होने की सम्भावनाएँ
मुझे समतल पर ज़्यादा लगीं।
पर यहाँ भी मैं नहीं।
यहाँ तुम हो…
मैं पढ़ती हूँ कोई किताब
तो तुम्हें पढ़ती हूँ।
समय के एक पड़ाव पर जब जीर्ण हो चुकी होंगी मेरी आँखें
बिना देखे ही समझ जाऊँगी तुम्हारे चेहरे के भाव।
जब देखना चाहती हूँ अपनी परछाईं
तो तुम्हें देखती हूँ।
वास्तव में ख़ुद को खोज पाना क्या इतना मुश्किल है?

संघर्ष

यूँ ही नहीं टूट जाता कोई पत्ता पेड़ से,
पूरी शक्ति से सम्भालता है छोटी-सी भी दरार,
होती रहतीं है रासायनिक क्रियाएँ
चलता रहता है प्रयास निरंतर
अंदर ही अंदर जुड़े रहने का।
दबाव ही तोड़ पाता है साथ।

यूँ ही नहीं जुड़ता कोई तिनका घोंसले में
तय करनी पड़ती है कुछ दूरी
बनानी पड़ती है उसकी जगह दूसरे तिनकों के बीच
हटानी पड़तीं हैं सिलवटें,
छोड़ना पड़ता है पुराना घर,
बनाना पड़ता है सभी आयामों में सन्तुलन।

यूँ ही इस दुनिया में कुछ भी नहीं होता।

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