रात के आठ बजे

मैं सो रहा था उस वक़्त
बहुत बेहिसाब आदमी हूँ
सोने-जगने-खाने-पीने
का कोई नियत वक़्त नहीं है
ना ही वक़्त के अनुशासन में रहा हूँ कभी

मैं सो रहा था साहब उस वक़्त
मेरी क्या ग़लती थी
मेरे पास कुछ पाँच हज़ार जमा थे गाढ़े समय के लिए
छुपा के रखे थे पाँच-पाँच सौ के दस नोट

मैं अभी-अभी रिक्शा खींचकर आया था घर
सोचा थोड़ा सुस्ता लूँ
तब तक झपकी लग गयी थी
कुछ शोर सुनायी दिया था
मित्रों… लॉकडाउन… घर … बन्द… बाज़ार… बन्द
स्वास्थ्य… अर्थव्यवस्था… बीमारी… महामारी

मेरे घर में अगले दिन के लिए राशन नहीं था
गेहूँ मिल में दे आया था पिसाने को
सोचा था आज की रात किसी तरह काम चल जाएगा
कल सुबह दाल और सब्ज़ी लेता आऊँगा

मैं रोज़ लेबर चौराहे पर बैठता हूँ साहब
बड़े लोग आते और दिन-भर के काम के लिए
मोल ले जाते
मुझे तो सप्ताह में एक ही दिन काम मिलता था
शरीर झुक गया था
ऊपर से गाली पड़ती अलग
मैं कामचोर नहीं था साहब
लेकिन घर पर बैठे रहने से भोजन तो नहीं मिलता
जैसे भी करके नून-रोटी का जुगाड़ हो ही जाता था

हम कहाँ जाते साहब
हम तो ट्रेन में भी पाखाने में बैठ के आए थे
सो पैदल ही गाँव चल दिए
जब यहाँ काम ही नहीं रहा

मैं कहाँ जाता साहब
कहाँ बन्द होता
खुली सड़क ही अपना आशियाना था

साहब! हम जैसे बहुत बेचैन लोग
अन्ततः मर जाने के लिए ही होते हैं
या फिर मारे जाने के लिए
क्या फ़र्क़ पड़ता है कि
कोई महामारी हो
कोई बन्दी हो
अकाल हो, सूखा हो, बाढ़ हो
जब तक ज़िन्दा हैं
शरीर का बोझ ढोते हैं
और जब मर जाते हैं
आपके लिए मुश्किल हो जाती है।

परिभाषा

शहर

यहाँ के मूल निवासी खो गए हैं
या वे विस्थापित हो गए हैं
न जाने कहाँ
यहाँ जो रहते हैं
वे भी विस्थापित हैं
एक अनन्त यात्रा के अनथक यात्री

सराय है यह
यह डेरा है
यहाँ घर किसी का नहीं।

मज़दूर

अपने घरों को छोड़
डेरों में रहने को अभिशप्त वह आदमी
जो पैर को पूरा फैला दे तो
दीवाल आड़े आ जाए

रोज़ न्यूनतम कमा लेने की जद्दोजहद
जिससे उनके परिवार की
जीने की न्यूनतम शर्त बनी रहे।

जीवन

मन्दिर की सीढ़ियों पर
किसी भक्त के आने के इंतज़ार में
पेट को दबाए
बैठा है कोई

सभी अपने घरों में क़ैद है

और मन्दिर के चिर स्थायी नागरिक
बेदख़ल कर दिए गए हैं
उनके लिए जीवन दो रोटी की कामना-भर है।

गाँव

वह स्थान
जहाँ बूढ़े, बच्चे और स्त्रियाँ ही शेष हों
जिसके युवजन
किसी त्योहार में अतिथि की तरह आते हैं
या किसी महामारी के बाद

किसान

खेत में पकी फ़सल को
नहीं काट पाने की
बेचैनी में
करवट बदलता जगन्नाथ

बेबस है
अबकी वह अपना भी पेट नहीं भर पाएगा।

मृत्यु

पैदल ही चला था वह
एक अनन्त यात्रा पर

दुःख और दुत्कार के अद्वैत को ढोता
जब थक गया
लोगों ने कहा
मर गया बेचारा

मैंने कहा
इसे किसने मारा

एक सांस्थानिक हत्या
जो लोकतन्त्र के महाअरण्य में घटित हुआ है
इसे किसी ने दर्ज नहीं किया।

संगरोध

1

निर्वाक् हैं जन
रास्ते सूने
जनस्थान शून्य

शून्य में गूँजता अनाहत शोर!

2

शोर
चिल्लाने से अधिक
चुप का

चुप्पी ऐसी
कि सामूहिक क़ैदी हों सब!

3

एकान्त
अपने को जानने के लिए

अज्ञातवास
अपने को खोजने के लिए

किन्तु
यह अकेलापन
बोझिल और उबाऊ।

4

खीझ
अनमने ऊब से
पैदा हुई।

5

यह वक़्त
महामारी का है
प्रेम का नहीं
उत्सव का नहीं

यह वक़्त कविता का नहीं
गद्य का है
और गद्य के बढ़ते जाने में
कविता के अवकाश
का इंतज़ार
मनुष्य द्वारा की गयी
प्रतीक्षा की परीक्षा है।

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कुमार मंगलम
कवि और शोधार्थी, इग्नू, दिल्ली में रहनवारी, बनारस से शिक्षा प्राप्त की। कला, दर्शन, इतिहास और संगीत में विशेष रुचि। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ और आलेख प्रकाशित।