Poems: Natasha

चीज़ों से गुज़रते हुए

फूलों का कोई वज़न नहीं होता
यह सोचते वक़्त
मालिनों के पीठ के छाले मत भूलना

मत भूलना
यह सोचते वक़्त
कि रात निद्रा में है
श्वास के आरोह-अवरोह में लिप्त
यह महुए की टप -टप में जागी रहती है।

चिहुँकता है खग-शावक रह-रह क्यों
मत भूलना
कि नीद में उसने गति नहीं भूली।

घड़े के टूटने का दर्द
चाक जानता है
और उससे अधिक कुम्हार के हाथ!

पहाड़ तपस्या में लीन है
या पृथ्वी की छाती देख ठिठक-सा गया है

यह सिर्फ़ पानी जानता है
कि पहाड़ का गलना
नदी हो जाना है।

स्त्री का होता आठवाँ दिन

स्त्री जब उदास होती है
गुनगुना लेती है कोई गीत
या पसन्दीदा किताब के पन्ने पलट लेती है
घूम आती नदी का कोई प्रिय किनारा
फ़्लोरल प्रिंट के दुपट्टे से लपेट लेती है देह

हालाँकि, अधिक देर उदास रहना मना है स्त्री के लिए
हर रंग को घिसते-घिसते उसने जान लिया है
उदासी कुछ और नहीं
परतों में छिपा
स्याह-सा एक धब्बा है!

स्त्री के उदास होते ही
चुप्पी से भर जाता है पूरा घर
अन्यमनस्क, उनींदा, अनमना-सा
बन्द खिड़कियाँ खुलना चाहती हैं समय पर
बिस्तर सलवटों से करवट फेरना चाहता है।

कोई नहीं आता स्त्री की उदासी पढ़ने
जिस स्त्री ने तह लगायी हैं डायरियाँ आलमारी में

उदासी से थकती जाती स्त्रियाँ
ज़ोर से लगातीं एक उदास ठहाका
यह भूलकर
किस दिन उदास हुई थीं

स्त्री गिनती है
सभी सजीव-निर्जीव वस्तुओं की
साप्ताहिक गतिविधियाँ
अपने लिए ढूँढती आठवाँ दिन

स्त्री के इतवार की गोद में
घर का इतवार सोता है।

उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ते

नींद बेतरह दुःख से परे ले जाती है
और स्वप्न
लाकर छोड़ देता है अर्धरात्रि के चौमुहाने पर!

स्वप्न सोए भी रहें
तब भी उम्र जागती रहती है
और हर जन्मदिन पर याद दिलाती जाती है

उम्र तोड़ती है देह
पके बाल
घुटनों से उठने वाली टीस
अधिक जानते हैं जन्मदिन का अर्थ

अपने हर जन्मदिन पर एक गाँठ खोल देती मैं
और जान पाती उम्र का विस्तार

एक टुकड़ा कम गिनती अपनी भूख में
एक पृष्ठ भर देती इबारतों से
जन्मदिन महज़ केक का कटना नहीं
उम्र का कटना भी है।

प्रेम के अन्तिम दिनों में

तुमने कहा, मुझे भूल जाओ
मैंने कहा, ठीक
पर प्रेम के अवशेष का क्या!
तुमने कहा, जला दो!
मैंने कहा, पर इन सबके बीच
स्याही का क्या दोष!
पेड़ की देह का भी दोष नहीं

तुमने कहा, बहा दो
मैंने कहा, पीली पड़ जाएँगी नदियाँ
जल उट्ठेंगी बेवजह

तुम झल्ला पड़े,
और अनदेखी कर गए!

मैं अनदेखी न कर सकी
घाव को हटाना था दाग़ फिर भी न मिटे
प्रेम निर्दोष था
बचाना था हर हाल में
रास्ता बस एक था
जो सारे ऋण चुका सकता था!

मैंने मिट्टी में दबा दिया सारी चिट्ठियों को
इस उम्मीद में
कि स्याही घुल जाए मिट्टी में
काग़ज़ जा मिले अपने स्रोत से

कोई बीज कभी उग आए शायद!

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नताशा
जन्म- 22 जुलाई 1982 (बिहार) | शिक्षा- एम. ए. हिन्दी साहित्य, (पटना वि.वि.) बी.एड | सम्मान- भारतीय भाषा परिषद् युवा कविता पुरस्कार (कोलकाता) फणीश्वर नाथ रेणु पुरस्कार (पटना विवि)