Poems: Niki Pushkar
आदत
सहेजने की पुरानी आदत है मेरी
तुमसे भी जब जो मिला,
मैंने सहेजकर
हृदय में रख लिया,
तुम्हारी हर एक बात,
हर एक भाव-भंगिमा,
सारे संवाद,
मुलाक़ात की तारीख़ें,
मुलाक़ात की अवधि,
अनदेखियाँ, उपेक्षाएँ
कितना कुछ सहेजा हुआ है
मेरे पास….।
तुम्हारी अनुपस्थिति में
इन सहेजे क्षणों को
बारी-बारी ज़ेहन में ही
उलट-पुलटकर देखती रही हूँ,
बीत चुके लम्हों को
फिर से जीती हूँ,
जितना महसूसा
उतनी पीड़ा होती रही,
मन पर भारी बोझ-सा हो जैसे।
ढूँढकर भी सुख मिलता नहीं
क्षण भर भी मन चैन पाता नहीं
काश! पहले से जानती
सहेजना कितना दुःख देता है!
न करना वो बातें
तुम न करना मुझसे
दुनियादारी की बातें
करना हो,
तो यूँ ही कर लेना कभी
पहाड़ों की बातें, झरनों की बातें, नदियों की बातें
उनसे फूटते संगीत की बात
तुम करना मुझसे
जो आज भी कहीं ज़िन्दा है तुम्हारे अन्दर
उस मासूम बचपने की बात
तुम करना उन अनगढ़ शब्दों में
गढ़ी उस पहली कविता की बात
तुम करना उस पहली बे-बहर ग़ज़ल की बात
चाहो तो करना मुझसे
पहले प्रेम, पहली प्रेमिका की बात,
जो कभी पूरी नहीं हुईं
उन ख़्वाहिशों की बात
तुम करना मुझसे
तुम्हारे अन्दर के,
जिसे दुनिया नहीं जानती,
उस शख़्स की बात
तुम करना मुझसे
जिन्हें संकोचवश बघार नहीं पाए
उन शेखियों की बात
जिन्हें कभी स्वीकार नहीं कर पाए
उन कमज़ोरियों की बात
जिन्हें हासिल कर सकते थे
और नहीं कर पाए
उन उपलब्धियों की बात
तुम करना मुझसे
जो छिपा है तुम्हारे अन्दर ही कहीं
जिसे दुनिया जान न पाएगी कभी,
उस फ़नकार की बात
तुम कहना मुझसे,
जो जीवन बदल सकता था
उस पहले अवसर की बात
तुम करना मुझसे
जो तुम्हारी हो सकती थी,
उस मंज़िल की बात
तुम कहना वो सब बातें,
जो न कह पाए किसी से
तुम करना सारी
छूटी, टूटी, बिखरी बातें…
पर न करना कभी
दुनियादारी की बातें…।
संगीत
1
संगीत!
तुमसे प्रथम परिचय तो
माँ की लोरी से ही
हो गया था
फिर अविरल सलिला-से
तुम यूँ
घुले-मिले जीवन में
कि
जीवन उत्सव हो गया…
हर्ष में, क्षोभ में, प्रेम में, उत्साह में
तुम मन के हर भाव में
तुम साँस में, प्राण में
यूँ ही रहने वाले हो सदा
जीवन साँझ-विहान में…।
2
एक संगीत भरी मुलाक़ात
चाहती थी तुमसे
चाहती थी बात करना,
उन तमाम गीतों के बाबत
जो कदाचित तुम्हें भी छूते हैं
अन्दर तक…
चाहती थी कि
सुनाऊँ उन तमाम गीतों को
अपने बेसुरे कण्ठ से
और फिर
खिझाकर तुम्हें
मजबूर करूँ
उन्हीं गीतों को गाने के लिए
तुम्हारे सुरीले स्वर में…।
देवदूत
पहले औषध से लगते हैं वे लोग,
जो दरअसल
ज़ख्म होने आते हैं जीवन में…।
लुटाते हैं ख़ूब वाहवाही
तुम्हारी साधारण-सी प्रस्तुति पर
बार-बार तुम्हारे हुनर से
तुम्हें अवगत करा,
आम से ख़ास होने का
भरसक अहसास कराते हैं
कई मुद्दों पर बात कर अन्त में,
प्राप्त कर लेते हैं
तुम्हारा पसन्दीदा विषय
प्रशंसा और हौसला अफ़ज़ाई से
वे पा लेते हैं निकटता
और बन जाते हैं तुम्हारे
प्रेरणास्रोत और पथ-प्रदर्शक
और जब पूर्ण निर्भरता पा लेते हैं
तो मोड़कर मुँह
उपेक्षा और अनदेखियों का
पुरस्कार देते हैं
अब वे औषध लगाने वाले देवदूत
बन जाते हैं,
अश्वत्थामा के माथे का घाव
कि तुम,
रिसते रहो…
दुखते रहो…
तड़पते रहो…
और जीते रहो…
यह भी पढ़ें: निकी पुष्कर की कविता ‘गूँगे का गुड़’