बाँझ चीख़ें
उनकी बाँझ चीख़ें
लटक रही हैं
आज भी
उस पेड़ से
जहाँ बो दिया था तुमने
स्वयं को
इस निर्मम धरती
और
निर्दय आकाश के बीच
कहीं।
नम सलवटें
धूप ही आती है
न
बादल ही बरसते हैं
पूरी तरह
सूख पाते न भीग पाते
पूरी तरह
छत के तारों पर टंगे
हम।
विदेही
अँधेरा था
और उन्हें
बाँटे जा रहे थे शरीर
उनमें से किसी ने
चुरा ली
मेरी देह।
चिठ्ठी
हाथ लगी है वो चिठ्ठी
जो लिखी आँख ने आँसू को
तुम बिन सूने
दो दीपक के घृत थे तुम
आँखों के कोनों में खेली
लुका-छिपी, याद है या फिर भूल गए वो
टिप-टिप बारिश जो
गीला करती काग़ज़ को
जिस पर बड़-बड़ करता
कुछ लिखना चाहता था,
वो आज भी है अनपढ़ा ही मुझ में
पहले कोहरा छा जाता था
बिजली नहीं थी, बादल भी गुम
बस थे तुम
कितना भी पलकों की सलाख़ें क़ैद में रखतीं
आँख के कोनों की मिट्टी से फूट ही पड़ते
याद है जब तुम फिसल के
गालों से आते थे यूँ गर्दन तक
यादों के रस्ते कोई नन्हीं-सी नदी आकर
दिल के ठहरे पानी में
यूँ लहरा देती हलचल
जो चित्र समय की परछाई के उस पर घिरते
एक भाप-सी उठती
उनसे मैं अपनी यादों को आज भी सेता हूँ
क्या तुमने कभी देखा
सपने की आँख का आँसू?
भीमबेटका
भीमबेटका के
भित्ति-चित्रों से
निकल आया एक चित्र
हो गया
किंकर्तव्यविमूढ़
देखकर
बिना चित्रों के चलती-फिरती दीवारें
और
बग़ैर दीवारों के चलते-फिरते चित्र।