लौट आओ तुम

तुम रहती थीं
आकाश में
बादलों के बीच
तारों के संग
चाँद के भीतर
खुली धूप में
हरी घास में
फूलों में
झरते हरसिंगार में
गौरैयों की आवाज़ में
कोयल की मीठी तान में
बाँसुरी के संगीत में
तितलियों के बीच
टपकते महुवों में
सड़क किनारे लगे
टेसुओंकी क़तारों में
पीपल, सरयी, नीम की
निबौंड़ी में तुम रहती थीं

मेरे भीतर भी कहीं हो तुम
किन्तु अपनी देह से निकलकर
तुम किसी कोटर की
अन्धी खोह में जा धँसी हो
तमाम पीड़ाओं के साथ

लगता है मैं भी नहीं हूँ

जबकि ख़ाली है हमारा
नियत स्थान

ढूँढ रहे हैं तुम्हें
आकाश, चाँद
तारे, बादल
गौरैया, कोयल
जंगल के पेड़
टेसू, नीम, महुआ

कोटर की खोह से निकलकर
लौट आओ मेरे मन के
जंगल की ओर…

स्त्री और गौरैया

तुम
देखते हो
एक स्त्री को

ऊपर से
उसकी
स्निग्ध देह

उसकी गोलाइयाँ

उसके बाहुपाश की
कोमलता

उसके
भीगे होंठ

नहीं दिखती
सिर्फ़ तुम्हें

उसके भीतर की
वे तमाम खरोंचें
जो पीढ़ियों से
चली आ रही हैं

उसके भीतर के
टीसते घाव
जो
सदियों से रिस रहे हैं

उसने
तुम्हारे भीतर के
घावों को भी बचाया
नासूर होने से

स्त्री
छिपा जाती है
खरोचों
और घावों को
जिस पर दर्ज होता है
तुम्हारा भी नाम

तमाम पीड़ाओं को
उलीचते-उलीचते
वेदनाएँ
दफ़्न हो जाती हैं
स्त्री के अन्तस में

और
गौरैया-सी
हो जाती है
उसकी देह

फुदकती रहती है
समूचे आँगन में।

स्वाति नक्षत्र की एक बूँद

आदमी
पहले भी मरता था

आदमी
अब भी मरता है

पर
जीता है
दम्भ में

आदमी के
भीतर की नदी
सूखती जा रही है

लाशों की ढेर पर
बैठे हैं गिद्ध
मज्जा तक चूस लेने के लिए

और
तुम्हारी आँखें
सजल हैं

ताक रही हैं
आकाश की ओर

स्वाति नक्षत्र की
एक बूँद के लिए।

मोनालिसा

मृत्यु के बाद
तस्वीरें बोलती हैं

तस्वीरें
दीवारों पर टँगी हुईं
भीगी
भिगाती हुईं
आँखों को

ग़ौर करने पर
तस्वीरों में गूँगे होंठ
वाचाल हो जाते हैं

खंगालने पर
टीसती यादें
उभर आती हैं
चुभती हुईं

तस्वीरों की आँखें
पीड़ाओं के
अथाह समुद्र को लाँघकर
भावों के
किनारे आकर
टकरा जाती हैं

इसी किनारे पर
एक उदासी सिमट जाती है
मुस्कुराने के लिए
रहस्यमयी मोनालिसा की तरह

मोनालिसा टँगी है
दीवार पर।

स्त्री के जीवन का मूल-मन्त्र

घर की दहलीज़ के भीतर
पाँच फोरन की गंध से सराबोर
चटकती हुई सरसो का एक दाना
देह में चिपक जाने का दंश जानती है वह
भीतर से उठती हुई टीस को दबाने की कोशिश में
आँखों के कोर भीग जाते हैं
सिर्फ़ वह ही जानती है
घर के अन्दर का स्वाद

पर उसके स्वाद का पता
घर… भूल चुका है

स्त्री का जुझारूपन ही
एक स्त्री के जीवन का
मूल-मन्त्र है!

पल्लवी मुखर्जी की कविता 'लौट आया प्रेम'

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