सुनो मछुआरे
सुनो मछुआरे
जितने जुगनू
तुम्हारी आँखों में
चमक रहे हैं न
टिम-टिम
तारों के जैसे,
वे क्या
हमेशा चमकते रहते हैं
इसी तरह?
सुनो मछुआरे
जब तुम
जाल फेंकते हो
सागर में,
तुम्हारी बाँहों की मछलियाँ
मचल-मचल जाती हैं
सुनो मछुआरे
इतनी शिद्दत
कहाँ से लाते हो तुम?
जबकि
तुम्हारे घर के चूल्हे की आँच
जलती है धीरे-धीरे
और ढिबरी की बाती भी
होती है मद्धिम
तुम्हारी खोली के भीतर का अंधेरा
तुम्हारी आँखों के जुगनुओं से ही
प्रकाशित होता है
सुनो मछुआरे
तुम्हारे भीतर का आकाश
बहुत बड़ा है
यह जानती हूँ मैं
आकाश के
कैनवास पर रंगों की कूची चलाना
सिखाओगे तुम?
सुनो मछुआरे!
खंडहर
धुले, लिपे इन मकानों के बीच
अक्सर नज़र जाती है उस मकान पर
जो रंगहीन, बेरंग खड़ा है,
जगह-जगह से
पपड़ियाँ सूखी निकल रही हैं
जैसे किसी विरहिणी के सूखे होंठ हो
व्याकुल अपने प्रियतम के लिए,
घर की दीवारें ढह रही हैं
छत की रेलिंग पर ज़ंग है
घर के दरवाज़े से
आ-जा रहे सदस्यों को
पढ़ने की मेरी अनवरत कोशिश में
घंटो बीतती शाम का एक टुकड़ा उसे देती हूँ
जो उसी घर की छत पर ताक रही है मेरी ओर
उसकी सजल दृष्टि से
भीतर उछलते समुद्र की लहरों को
पकड़ नहीं पाती हूँ
लौट आती हूँ बोझिल
अपने कमरे में
उलझ जाती हूँ व्यर्थ
किताबों के बीच।
ख़्वाब
मैंने तो
कभी नहीं कहा तुमसे
मत करो
चूल्हा
चौका
बर्तन
ये
खन-खन
ये
राई का तड़कना
और घर का
मीठी नीम की ख़ुशबू से
भर जाना
या
ख़ाली बाल्टियों को
पानी से भरना
अलगनी के टंगे कपड़ों को
उतारना
उन्हें तहाना
अल्मारी में
क़रीने से सजाना
हाँ
कितना सलीक़ा जानती हो तुम
रोती हुई आँखों में
हँसी भरना भी
बस
भूल जाती हो
खुले उलझे बालों को
बांधना
भूल जाती हो
छत पर जाकर
रुपहले चाँद को ताकना
बातें करना देर तक
तुम
भूल जाती हो
टिमटिमाते तारों को भी
चुना जाता है और
आँचल में टाँका जाता है
इन दिनों प्रेम
उसने
उसके होंठों को छुआ
और कहा
बताओ
कैसा फ़ील कर रही हो
फिर
उसकी पीठ पर
उसके हाथ रेंगने लगे
वह
अवाक
उसकी आँखों को
देख रही थी
प्रेम
कहीं नहीं था…
मछलियों की भाषा
जहाँ लाश है
उसे खंगालो मत तुम
जीवन को खंगालो
प्राणहीन सम्वेदनाओं में
स्पंदन कहाँ होता है?
लाश की आँखें
पत्थर की होती हैं
उसमें लाल डोरे नहीं होते
मछलियों-सी तैरती
प्रेम
मखमली नहीं होता
प्रेम के खुरदुरेपन की चुभन
तुम्हारी नींद में हो—
तभी तुम
देख सकोगे
तैरती मछलियों को,
पढ़ सकोगे
मछलियों की भाषा!
रोटी
वह रोटी बेल रही थी
गोल-गोल
और
साँस ले रहा था घर
इत्मीनान की
आकाश का चाँद
मखमली रोटी की तरह
खिला-खिला था
सिर्फ़
आँखों से ओझल थीं
टप-टप करती
पसीने की बूँदें जो
माथे से आँचल को
भिगो रही थी
पसीनें की बूँदें
चमक रही थीं और
घर की फ़सल
लहलहा रही थी
इधर वह
रोटी बेलती जा रही थी…
पल्लवी मुखर्जी की कविता 'लौट आया प्रेम'