Poems: Paritosh Kumar Piyush

सोचता हूँ

जब भी सोचता हूँ
तुम्हारे बारे में
हर बार यही लगता है
कितना कुछ लिखा जाना शेष है

क़लम उठाने के बाद
पहले देखता हूँ
उनमें कितनी बची है स्याही

तुम्हारे बदन को चूमने से पहले
महसूसता हूँ
कितनी बची है तुम में थकान

फिर सोचता हूँ
सुबह उठने के लिए
कितने बजे का लगाना है अलार्म…

रेलगाड़ी

रेलगाड़ियाँ आती हैं
कुछ वक़्त ठहरती हैं
फिर चली जाती हैं

कुछ लोग उतरते हैं
कुछ लोग चढ़ते हैं
कुछ आकर चले जाते हैं

चालक और गार्ड
एक-दूसरे को हरी झंडियाँ दिखाते हैं
चक्के पटरियों को चूमते हुए ओझल हो जाते हैं

मैं सोचता हूँ
किसी दिन मेरे लिए भी आयेगी एक
धुआँ उड़ाती, सीटी बजाती रेलगाड़ी

कोई उतरेगा मेरे लिए
या मैं चढ़ूँगा किसी के लिए

रेल की नौकरी में
आठ घण्टे काम करने के बाद
इतना सोच लेता हूँ
ऐसा लगता है
मैं कुछ ज़्यादा सोच लेता हूँ…

देशभक्त

अपनी पारी के इंतज़ार में
जो दिनभर ख़ामोश रहकर
रात नफ़रत के बीज बोते हैं
जिनके नाम दर्ज है दर्जनों हत्याएँ
शोषण और अत्याचार की वीभत्स कहानियाँ

आज की तारीख़ में
वे तमाम लोग सबसे बड़े देशभक्त हैं
उन लोगों ने मुझे देशद्रोही कहा है
देश छोड़कर चले जाने की चेतावनी भेजी है

कि देश की उन्नति के इस स्वर्णिम समय में
मैं सबसे बड़ा बाधक हूँ
उन्होंने मेरा अपराध बताया है, कि
उनकी हाँ में हाँ
उनकी न में न कहने की बजाय
मैं कविताएँ लिखता हूँ
और प्रेम भी करता हूँ…

यह जानते हुए भी

कितना अनूठा है
कितना आश्चर्यजनक है
यह जानते हुए भी, कि
इस ग्रह पर
उसे चाहने वालों की
बेहद लम्बी फ़ेहरिस्त है

और इन दिनों प्रेम की
बदलती परिभाषाओं के बीच
मैं उन सूचीबद्ध लोगों से
कितना कमतर, कितना अलग
कितना मिसफ़िट, कोसों दूर हूँ

मेरे अधरों पर
अपने अधरों को टिकाते हुए
उसने कहा-
तुम्हारी आँखों में
मेरे हिस्से की समूची दुनिया है…

सपने और हक़ीक़त

आँखें बंद कर
या नींद में
आँखों के बंद हो जाने पर
कुछ भी हुआ जा सकता है
कुछ भी सोचा जा सकता है
कुछ भी किया जा सकता है

सपने में
मैं पूरी दुनिया का
मसीहा हो सकता हूँ
मालिक हो सकता हूँ
साहित्यकार हो सकता हूँ
कोई अभिनेता हो सकता हूँ
चक्रवर्ती सम्राट हो सकता हूँ

सपनों के शब्दकोश में
असम्भव, नामुमकिन जैसे कोई शब्द नहीं होते
अलबत्ता उनकी जगह चमत्कार शब्द
अपने तमाम पर्यायवाची रूपों में मौजूद होते हैं

लेकिन अभी-अभी जो मेरी नींद खुली है
यह सुबह का वक़्त है
घड़ी के लगभग छः बज रहे हैं
मेरे सिरहाने में मुक्तिबोध का एक संग्रह है
और मेरी आँखों के सामने
मेरे घर की टपकती छत, झरती दीवारें
बिना पल्ले की खिड़कियाँ हैं

यह बेहद ज़रूरी है कि
अपने जीवन में
सपने और हक़ीक़त के बीच
फ़र्क़ को समझा जा सके…

पहाड़

पहाड़ों की कठोरता, स्थिरता, मज़बूती
और विपरीत परिस्थितियों को
झेल पाने के हौसले, बुलंदियाँ
सिर्फ़ उनके पत्थर होने से नहीं है

उनका अडिग होना
उनके अपने आंतरिक प्रेम
और अपनी साझेदारी पर निर्भर है

कितना अच्छा होता, कि
इस दुनिया में
हर घर पहाड़ की तरह हो पाता…

मुलाक़ात

हर मुलाक़ात के बाद
कुछ बातें
अधूरी, अनसुनी
अनकही रह जाती हैं
अगली मुलाक़ातों के लिए

इस ग्रह पर
मुलाक़ातें कभी अपनी
पूर्णता को नहीं प्राप्त होती…

लौटना

जीने के लिए
कई बार लौटना होता है

लौटना हर बार हारना नहीं होता
लौटना हर बार जीतना नहीं होता
लौटना हर बार हमारी मजबूरी नहीं होती
लौटना हर बार प्रेम की तलाश भी नहीं होती

लौटना
अपनी यादों में
लौटना भी होता है…

आदमी

आदमी ख़ुद को
सबसे ज़्यादा भयभीत
और संशयग्रस्त
रेल के डब्बे में पाता है

रेल के डब्बे में जानवर नहीं
सिर्फ़ आदमी ही सफ़र करते हैं…

गंगा स्नान

नदियों को
अपवित्र कर
हम पवित्र हो जाते हैं…

चित्र श्रेय: परितोष की फ़ेसबुक वॉल से

यह भी पढ़ें: ‘उनके अश्लील चुटकलों पर होंठों को लेकर एक विशेष भाव भी नहीं लाता मैं’

Recommended Book:

परितोष कुमार पीयूष
【बढ़ी हुई दाढ़ी, छोटी कविताएँ और कमज़ोर अंग्रेजी वाला एक निहायत आलसी आदमी】 मोबाइल- 7870786842