Poems: Prema Jha
तन्हाई का पता
मेरी तन्हाई जैसे आकाश-भर तारों को ढाँपता गाँव का बरगद
तुमसे मुलाक़ात के दो पल जैसे अकाल भूमि पर फूटी गेहूँ की बाली
हर रोज़ तुमसे दूर जा रही हूँ
ये ऐसा ही है जैसे
उम्र की थकन में मीलों पैदल चलने की क़िस्मत
पीड़ाएँ बेचैन लहर-सी किसी ग़ैर मामूली रोग की तलाश में हैं
ग़ुबार स्याह आकाश जैसे भूलता हुआ सहर
तुम दिन की ख़ामोशी में सिगरेट जलाते हो
मैं रात के बियाबान में अलाव जला लेती हूँ
मुझे डर नहीं है किसी भी जानलेवा पशु का
न ही ये ख़्वाहिश कि कोई इस डर में मुझे सीने से लगा लेगा
मैं अदम्य साहसी हूँ, उतनी ही जितनी ज्वालामुखी के बनने का काल
मैं पानी हूँ
मैं रेत हूँ
मैं हवा हूँ, आँधी हूँ, बयार हूँ, पतवार हूँ
मैं वैसे ही जैसे
जिसका कुछ होना भी कभी कुछ नहीं होता!
जहाँ तुम अँधेरी सड़कों पर एक दिन पता पूछते हुए
पहुँच गए थे
और घण्टों ये सोचते रहे थे कि
तुम्हारे घर तक की दूरी अगर पैदल तय की जाए तो कितनी होगी!
तुम कुछ नहीं बोले फिर
मैंने भरी दोपहर में घर ढूँढते शख़्स को देखा है जो अक्सर
पता पूछा करता है
और जिसे मीलों तक कभी कोई सवारी नहीं मिलती
ये घर उसी शख़्स का है जो अँधेरी सड़क को जाती किनारे किसी सराय में रहता है!
तुम ख़ुदा
तुम जामा मस्जिद का इलाक़ा हो
जहाँ पहुँचकर मुझे घर पहुँचने जैसा लगता है
तुम फिर घर हुए मेरे
एक आवाज़ जो घर पहुँचकर सबसे पहले सुनी जाती है
उस अज़ान से तुम हो
तुम मेरे बिलाल हो फिर
क्या कहोगे घर बन जाने पर
क्योंकि कोई कहता नहीं कुछ फिर
चुप खड़ा रहता है मुस्तैद हिफ़ाज़त में
अपने मालिक के
अब मैं तुम्हारा मालिक
जो तुम कहते हो कुछ मुझे
वो मेरी नमाज़ है
मैं जो पुकारूँ मुहब्बत में तुमको
कुरआन होगा हमारा
तुम जो चुप सुनते हो मुझे
मेरे लिए माँगते कोई दुआ होगे
हम ख़ुदा की बन्दगी कर रहे हैं
हाँ, मुहब्बत करना
आयतें पढ़ने जैसा ही है
और वस्ल ख़ुदा के फ़रमान में
लिया गया एक जायज़ फ़ैसला
तुम्हारा चुम्बन वुज़ू-सा
पाक करता है मुझे
मैं हूँ एक फ़रमाबरदार आशिक़
और तुम मेरे ख़ुदा!
अभिनेत्री और क़लमकार
वो कोई क़लमकार था, अभिनेत्री के बारे में लिखता था
घण्टों उसकी अदाओं को सोचता फिर नज़्म लिख लेता
वो गीत भी गाता था
वो अभिनेत्री के रूप में फँस चुका था
बुरी तरह
हाँ, बुरी तरह
वो अपने चेहरे में भी उसे ढूँढने लगा था
अभिनेत्री तो अभिनेत्री थी
निहायत ख़ूबसूरत और हस्सास
एक दिन उसकी लिखी नज़्म अभिनेत्री तक पहुँच गई
वो उस क़लमकार के कान और होंठ से प्यार करने लगी
अभिनेत्री के लिए क़लमकार का हाथ भाग्य-ब्रह्म जैसा था
वो उसके हाथों को पूजने लगी थी
कान जब भी उसके गिर्द होता वो उसे चूम लेती थी
और होंठ पर उँगलियाँ सहलाती हुई अपने होंठ उसके होंठों पर रख देती
फिर देर तक दोनों ख़ामोश रहते
क़लमकार का घर दूर था
वो कभी-कभी मिलने आता
बहुधा दोनों रंगों में बातें किया करते
लाल इश्क़ था और सफ़ेद तन्हाई
जब कभी अभिनेत्री के शहर में बारिश होती
क़लमकार उसमें नहा रहा होता
और लिखता प्रेम से लबरेज़ एक कविता
जब कभी क़लमकार के शहर में धूप आती
अभिनेत्री अपने बाल सुखा लेती
क़लमकार उसकी ज़ुल्फ़ों में उलझ चुका था
क़ैद हो गया था उसकी आँखों में
अभिनेत्री उसके हाथों से बोलती
और क़लमकार उसकी आँखों में दुनिया जीने लगा था!
तुम ख़ून बूँद हो मेरे लिए
मेरी ताक़त तुम हो
तुम्हें सोचना रोग से मुक्ति-सा है
राहत और जीने की उम्मीद-सा है
जब पत्थरों की चोट से आहत कोई चाहता हो
पल भर के लिए ठहरे बिना प्रहार का समय
तुम ऐसे ही हो मेरे लिए!
जब नहीं होते हो मेरे इर्द-गिर्द
शिरे में रक्त बूँद कम हो जाने-सा
या
चढ़ता हुआ ख़ून-सा दर्द होता है
तुम्हारी चुप्पी जैसे
बह गया रक्त जमीन पर मेरे शरीर से
मैं कमज़ोर हुई जाती हूँ
तुम्हारे दूर जाने की बात पर
तुम जब एक बार ‘हाँ’ कहते हो
मानो जिस्म में जान आ गई
अब मैं मुस्कुराऊँगी, देखो!
मुहब्बत ऐसा ही है, अपने होने में
कभी रोग, कभी दवा-सा
कभी माइग्रेन की सुइयों-सा,
कभी अफ़ीम-सा
एक ऐसी बीमारी
जिसमें एक-एक बूँद ख़ून
हर पल घटता है
तो कभी बढ़ता है
तुम मेरी वह ख़ून बूँद हो!