इतनी कम यात्राएँ क्यों

वह दुःस्वप्न के बाद टूटी हुई नींद थी
फिर नहीं आयी
मैं थके हुए किसी सूरज की तरह हो गया
जिसे बादलों की माँद से निकलने भर में
एक अरसा लग गया
मैं अगर बनिये की तरह हिसाब लगाऊँ
और नाप-तौल की भाषा में कहूँ
तो समझो, नौ हज़ार नौ सौ निन्यानवे रातें!
ओह! ज़िन्दगी का कितना बड़ा हिस्सा
मैं चखने से चूक गया

समय का वह टुकड़ा
जो गाथा की तरह उभरता है
किसी सभ्यता की तरह पनपता है
सैंकड़ों झंझावातों को सहते हुए
आलीशान ढंग से खड़ा रहता है
जब वह किसी दुःख की पहाड़ी से गिरता है
तो अमर हो जाता है।

बाक़ी दुनिया की तरह
मैं भी इसी समय को चखकर हँसा
रोया
इसी को ज़बान पर रख चटकारा लिया
इसी के संग खेला
इसी को खाया, मुस्कराया
लेकिन जब हवाओं ने हमारे पाँव उखाड़े
तब जाना
मैं विसर्ग की तरह
दो बिन्दुओं में बँटा पड़ा था
दिल और देह बीच निर्देशक चिह्न जैसी एक दीवार थी
ऐसी ही किसी दीवार पर एक सवाल था
जिसने बहुत-सी दौलत इकट्ठी की
उसने इतनी कम यात्राएँ क्यों कीं?
ज़िन्दगी की आधी-अधूरी यात्रा के बाद मुझे मालूम हुआ
किसी निगाह की पहाड़ी से गिरकर मरने वाला कभी नहीं उठता।

शिद्दत

साँझ का रंग उसके दुपट्टे से मेल खाता है
रात उसकी अपनी परछाई है।

सुबह के बारे में वो कुछ नहीं कहती
उसका मानना है कि सूरज
सिर्फ़ उसका बदन देखने आता है।

चाँद उसके लिए एक वाहियात दाग़ है
जो उसके सियाह लिबास पर युगों से लगा है।

उसे शिकायत है कि कोई अँधेरा ऐसा नहीं
जिसमें छिपकर वो औरत होने से बच जाए।

ईश्वर शर्मिन्दा है कि उसने
रातों को उतनी शिद्दत से नहीं बनाया
जितनी शिद्दत से उसने इस दुनिया को रचा है।

पसीने के बूते

हम रंगीन टकसाली काग़ज़ों से घायल हुए लोग हैं
हम अपने पापी पेट को पीठ पर उठाए हुए लोग हैं
हम छैनियों से कुरेदे गए किरदार हैं
हथौड़ों से हमें थोड़ा-थोड़ा तोड़ा गया है
फिर भी शहर की अट्टालिकाओं में बनी
किसी भी खिड़की से कोई चेहरा हमारे लिए नहीं चहकता
हमारे छाले हमारी तिजोरियों का काम करते हैं
जिनके भीतर हम ज़िन्दगी की दिहाड़ी रखते हैं
हम तीर होकर भी तुक्कों की तरह बरते गए लोग हैं।

दुनिया का सबसे आदिम संगीत
हमारी साँसों की धौंकनी से उठा
हमारे घर की औरतों ने अग्नि को पुत्र माना
हमारी संतानों ने धरती को माँ की तरह इज़्ज़त बख़्शी
हमारे घावों से लहलहाती फ़सलों ने रंग लिया
हमारी प्रार्थनाओं से पानी की पवित्रता बनी रही
हमारी निगाह में सबसे ख़ूबसूरत वो हाथ हैं
जो रोटी को फूल की तरह हमारे हाथों में रखते हैं
हम इन्हीं फूलों के वज़न से झुकाए हुए लोग हैं।

हमारे द्वारा कोई इतिहास नहीं लिखा गया
हमें तमाम गाथाओं में चटकारे की तरह लिया गया है
हमारे वजूद धरती में धँसे हुए दरख़्त के दस्तावेज़ हैं
जिनको बरसों बाद जीवाश्म की तरह पढ़ा जाएगा
हम एड़ियों की खरोंचों में पृथ्वी का दुःख छुपाते रहे
ऊँची इमारतों को ढोते हुए हम अपने ईश्वर को माफ़ी देते रहे
हम सपनों की टूटी हुई रीढ़ पर
पीठ टिकाए बैठे हुए लोग हैं।

हमें अनेकानेक छुट्टियों की दरकार हैं
लेकिन कोई दिन हमारे अवकाश के लिए मुफ़ीद नहीं है
सारे देवता हमारे दिलों में बैठे हैं
उन्होंने हमारी नींदें निचोड़कर हमें अधमरा कर दिया है
हमारे जिस्म से ख़ून लगभग चूस लिया गया है
हम महज़ पसीने के बूते ज़िन्दा रहे लोग हैं
हम सब्र के पहाड़ से कभी भी गिर कर मर सकते हैं
और हमारी पीढ़ियाँ हमारी जगह लेने को तैयार बैठी हैं।

चिड़िया की तरह ही देखना

जब वह उड़े
तो उसे सिर्फ़ एक चिड़िया की तरह ही देखना
उसे अपनी निगाह में
वह लड़की कभी मत बनाना
जिसने तुमसे प्रेम करके विवाह किसी और से किया।

तुमसे बिछड़ जाना
उसके जीवन का पहला कड़वा घूँट नहीं था
इससे पहले भी कई प्याले भरकर
उसकी आत्मा के कण्ठ में उड़ेले गए थे
और यह आख़िरी भी नहीं था
कि गटककर जिसे वह इत्मीनान बरतती रही।

इस उड़ान से पहले
सैंकड़ों बार टूटी होगी उसके जिस्म की डोर
पीड़ाओं से हज़ारों बार सनी होगी उसकी छाती
और पलकें तो लाखों बार फड़फड़ायी होंगी मुस्कराने के लिए
कई बार तो कतर भी दिए गए होंगे उसके सपने

तुम अब एक आँख से देखने का यह रिवाज बदल डालो
कि एक आँख से निशाना लगाया जाता है
नज़राना नहीं दिया जाता
इसलिए जब वह उड़े
तो उसे सिर्फ़ एक चिड़िया की तरह ही देखना।

आदमियत की यात्रा

यदि छत्तीस हज़ार रात्रियों तक ज़िन्दा रहना है
तो दाँतों का काम आँतों को मत करने दो
उन सत्रह दिनों की यात्रा को भूल जाओ
जब बदन को यहीं छोड़कर
रूह दक्षिण की ओर निकल जाती है
तुम अपनी निगाह हमेशा पूरब की ओर टिकाए रखना
अपनी हँसी की तमाम यात्राओं में
स्त्री के साथ बच्चे को,
गाय के साथ बछड़े को लेकर चलना
कोशिश करना कि दिल की गाड़ी
आदमियों से ज़्यादा आदमियत से भरी रहे।

पंचतत्त्व से निर्मित मैं

इतना तन्हा,
इतना ख़ाली था मैं
कि मुझे लगता था
मैंने आकाश में जन्म लिया है
सूनेपन और अंधेरे की गलबहियों में
जब भी उठती थी आह
लगता ही नहीं था
कि पनप रही होगी कहीं पर कोई कविता
मगर जिस रोज़ हवा ने मेरी आवाज़ को छुआ
मालूम हुआ स्पर्श क्या होता है
फिर आग मेरे हिस्से में आयी
और मुझे रूप मिला
मैं तपा, जला और
दर्द के एक छींटे से
ज़िन्दगी का स्वाद मेरी आत्मा में उतर गया

हाय! जाने वक़्त के किस छौंक से
गंधलाया हुआ मैं
आकाश से धरती तक की यात्रा में
ऊपर उठ रहा हूँ,
ऊपर, बहुत ऊपर।
मेरे बनने और मिटने की कड़ी के बीचो-बीच
कौन था वह
जिसकी हँसी की एक बूँद गिरते ही
मैं धुआँ हो गया।

इन्तज़ाम

तुम इस उजाले का कोई इन्तज़ाम क्यों नहीं कर देते
बारहा मेरी नींद में ख़लल पड़ रहा है
तुम अपने आप को धूप की मानिन्द समझते हो
अच्छा है!
किन्तु कितना बुरा है
इस धूप में मेरी आँखों का चुँधिया जाना

मेरी समूची जमापूँजी मेरे सपनों में है
और तमाम सपने इन आँखों में,
देखो!
कीलों की तरह चुभ रही है धूप
सारी तस्वीरों पर कालिख लग गयी है
भीतर के परदे पर कोई हलचल नहीं
ईश्वर ने समूचे आकाश पर जमा लिया है अधिकार
मनुष्य लग गए हैं धरती के पीछे
सारे मानचित्र नीले थे
अब मटमैले
ऐसा क्यों!
क्या तुम जानते हो
सलीक़े से सजे हुए बाज़ार पर किसका साया है?
या फिर बताओ
मेरी ये पलकें किसी की हथेलियाँ क्यों नहीं हैं?
न जाने किसके हाथ
भूख का गला काटने के काम आएँगे
न जाने किसके आँसू
प्यास की नदी को सोख पाएँगे

ये साँझ का समय मेरे सोने का नहीं है
तुम्हारी छाँव कहाँ है
उसे सुलगा दो
इस कलमुँही धूप को आग लगा दो
ऐसे चुँधियाए वक़्त के लिए
तुमने छतरी ख़रीदी
या फिर बारिश की प्रतीक्षा में प्रार्थना की?

तुम इस झूठे चुभन भरे उजाले का
कुछ इन्तज़ाम नहीं कर सकते
तो तुम्हारे दिखावे के संघर्ष और व्यर्थ के मौन को
किसी इतिहास के दिल में जगह नहीं मिलेगी।

राहुल बोयल की अन्य कविताएँ

Book by Rahul Boyal:

राहुल बोयल
जन्म दिनांक- 23.06.1985; जन्म स्थान- जयपहाड़ी, जिला-झुन्झुनूं( राजस्थान) सम्प्रति- राजस्व विभाग में कार्यरत पुस्तक- समय की नदी पर पुल नहीं होता (कविता - संग्रह) नष्ट नहीं होगा प्रेम ( कविता - संग्रह) मैं चाबियों से नहीं खुलता (काव्य संग्रह) ज़र्रे-ज़र्रे की ख़्वाहिश (ग़ज़ल संग्रह) मोबाइल नम्बर- 7726060287, 7062601038 ई मेल पता- [email protected]