रोहित ठाकुर : तीन कविताएँ
घर लौटते हुए किसी अनहोनी का शिकार न हो जाऊँ
दिल्ली – बम्बई – पूना – कलकत्ता
न जाने कहाँ-कहाँ से
पैदल चलते हुए लौट रहा हूँ
अगर पहुँच गया अपने घर
उन तमाम शहरों को याद करूँगा
दुःख के सबसे ख़राब उदाहरणों में
हज़ारों मील दूर गाँव का घर नाव की तरह डोल रहा है
उसी पर सवार हूँ
शरीर का पानी सूख रहा है
नाव आँख के पानी में तैर रही है
विश्वास हो गया है
नरक का भागी हूँ
घर पहुँचने से पहले आशंकित हूँ
किसी अनहोनी के।
लालटेन
क्या आया मन में कि रख आया
एक लालटेन देहरी पर
कोई लौटेगा दूर देश से कुशलतापूर्वक
आज खाते समय कौर उठा नहीं हाथ से
पानी की ओर देखते हुए
कई सूखते गले का ध्यान आया।
घटना नहीं है घर लौटना
दुर्भाग्य ही हम जैसों को दूर ले जाता है घर से
बन्दूक़ से छूटी हुई गोली नहीं होता आदमी
जो वापस नहीं लौट सकता अपने घर
मीलों दूर चल सकता है आदमी
बशर्ते कि उसका घर हो
विश्व विजेता भी कभी लौटा था अपने घर ही
हम असंख्य हताश लोग घर लौट रहे हैं
हमारे चलने की आवाज़
समय के विफल हो जाने की आवाज़ है।