Poems: Santwana Shrikant
पितृ-स्मृति
दीवार पर टँगी तस्वीर
मेरे पिता की,
और उस पर चढ़ी माला,
खूँटी पर टँगी उनकी शर्ट,
घड़ी जो आसपास ही पड़ी होगी,
उनके न होने की कमी
पूरी नहीं करती।
नहीं कहती मुझे-
क्या प्रतिउत्तर दूँ,
समय को,
जो हर दशा में
पिता के न होने का
जवाब माँगता है।
मैं तो महसूस करती हूँ
अपनी गम्भीर मुद्रा में उन्हें,
जब बचकानी बातें
नहीं कर रही होती हूँ,
और तब भी,
जब अपनी माँ का हाथ थाम
समझा रही होती हूँ
कि –
मैं ही तुम्हारा हमसफ़र हूँ।
नहीं निभा पाती मैं
अपने पिता के सारे किरदार,
उस जगह तो बिलकुल भी नहीं,
जब मैं पुत्री होती हूँ
और मुझे पिता की
अँगुली पकड़कर
चलने का मन होता है।
पिता की आख़िरी साँस
जब आख़िरी साँस ली होगी,
मेरी सुध तो की होगी।
आँखें मूँदने से पहले,
धप्प से गिरे होंगे मेरे सपने
उनके पाँवों पर,
फिर भींचकर आँखें सोचा होगा,
अब मैं जन्म दूँगा
एक स्त्री को,
जो जन्म लेगी मेरी मृत्यु के बाद।
ज़िम्मेदारियों से
जब ढेप लेगी नैराश्य
और बदलेगी लोगों के
अपनेपन की परिभाषा,
फिर वह स्त्री शिशु से
युवा हो जाएगी।
जीवन संघर्षों में
उलझती हुई वह,
सुलझी हुई नारी होगी।
गढ़ेगी वह स्त्री,
मर्यादाओं के नये बँधन।
फिर वह जन्म देगी
अपने पिता की आकाँक्षाओं को
एक नये शिखर पर।
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