सड़कें कहीं नहीं जातीं

सड़कें कहीं नहीं जातीं
वे बस करती हैं
दूरियों के बीच सेतु का काम,
दो बिंदुओं को जोड़तीं
रेखाओं की तरह,
फिर भी वे पहुँचा देती हैं
हमारे सुख-दुःख, हमारी चिन्ताएँ,
प्रेम और घृणा,
रोज़गार और दिहाड़ी
गाँव से शहर तक
और एक शहर से दूसरे शहर तक।

वे होती हैं जर्जर भी
हमारी इच्छाओं, आकांक्षाओं का
बोझ ढोते-ढोते
पर उफ़ तक नहीं करतीं।
सड़कों के सीनों में दफ़न हैं क़िस्से
दुनिया जीत लेने के
स्खलित अभियानों से लेकर
रक्त और लाशों से पटे
भीषण पलायनों तक के
जब भाग रहे थे आदमी
आदमी से डर कर।

मैंने सुना है
रोती हैं सड़कें रात को
जब थम जाता है
दिन-भर की भाग-दौड़ का कोलाहल,
और सुबह
भीगी हुई मिलती है
किनारे की घास।
आख़िर गुज़रे भी तो हैं
लुटेरों के सारे कारवाँ
इन्ही सड़कों की छातियों को रौंदते हुए,
और पहुँची हैं स्वजनों की
तमाम शव यात्राएँ
मरघट तक
इन्ही सड़कों के कंधों पर।

हम डरे हुए हैं

हमारे स्वप्नों का रंग पड़ गया है काला
और हमारी नींदों में उग आयी है एकाकीपन की घास।
हवा से थरथराते सहमे हुए पर्दों की तरह
सहमे हुए हैं विचार
रंग भूल चुके हैं आँखों में बिखर जाने का स्वभाव
उँगलियाँ व्यस्त हैं प्रशस्तिगान लिखने में
और कविताएँ बदल गयी हैं
हमारे समय के शोक गीतों में
मुर्दो की बस्ती में तब्दील हो रहे हमारे विचारों के शहर
हम सभ्यता की क़ब्रगाह में ढूँढ रहे हैं
अपने-अपने सिरहाने लगे हुए मृत्युलेख के पत्थर
संवेदना की ज़मीन बंजर हो गयी है,
ख़त्म हो रहा है पानी नदियों के आँचल से,
धरती की छाती से और
हमारी आँखों से भी।
समय के उस दौर में
जब हमारी प्राथमिकता से ख़ारिज हो चुका है
सच को सच कहने का साहस और
झूठ है जब सबसे बड़ा सत्य जीवन का
जब महानता और गर्व के सारे मुखौटों के पीछे
छिपे हैं विद्रूप बौने
और उनकी ढीठ भंगिमाओं से सहमे
ज्ञान और मेधा के सारे प्रहरी
देख रहे हैं दूसरी ओर मुँह फेरे
जब सोने से मढ़ी हुई क़लमें
भूल गई हैं प्रतिरोध की भाषा और
कवि बदल गए हैं दरबारी विदूषकों में
भाषा थिरकती हुई विज्ञापनों की सपनीली धुनों पर
ज़ाहिर कर चुकी है अपनी असमर्थता
वहन कर पाने में समानता और स्वतंत्रता के सनकी विचार,
जब राजा की नग्नता को स्वीकार करने की बजाय
हम लगे हैं अपनी आँखों की समीक्षा में
लज्जा के इन अंतहीन क्षणों में
हम डरे हुए हैं
यह स्वीकार करने से भी डरते हुए कि
हम डरे हुए हैं।

ईश्वर से

ईश्वर को
अब रिटायर हो जाना चाहिए
इस दुनिया का कार्य-व्यापार वैसे भी
हो चला है स्वचालित
और नहीं तो कम से कम
चले जाना चाहिए उसे लम्बी छुट्टी पर
ताकि कर सके कुछ आराम
ताकि कुछ नये, कुछ नवोन्मेषी विचार
उपजें उसके लाखों साल पुराने मस्तिष्क में।
ताकि कुछ दिनों तक बंद रहे
हमारे नये-नये दुखों का सृजन।
आख़िर कब तक वह
काम चलाता रहेगा
स्वर्ग-नरक, पाप-पुण्य, जीवन-मृत्यु, सुख-दुःख के
घिस चुके पुराने विचारों से।
किसी उदास साँझ
बैठकर किसी बौराये आम के नीचे
उसे भी फ़ुरसत निकालनी चाहिए
लिखने को एक प्रेम-पत्र
बंधनों से मुक्ति की एक कविता और
जुगनुओं को मुट्ठी में लेकर हौले से
उसे भी महसूस करनी चाहिए
रोशनी की कोमलता,
फिर शायद वह भी मुक्ति पा जाए
उन दीवारों की क़ैद से
जो खड़ी हैं उसकी स्वघोषित प्रजा के
मस्तिष्क के अंधेरों में,
फिर शायद कुछ बेहतर हो जाए
लाखों साल पुरानी यह दुनिया।

यात्रा के अंत में

कब से भटक रहा हूँ
इस सीमाहीन समुद्र में
हवा की दिशा और गति का अनुमान लगाता
साधता कमज़ोर पालों को
गुज़रता अतल गहराइयों के ऊपर से
पार करता अनाम द्वीपों को।
मेरी ही तरह हैं असंख्य नावें
दृष्टि की सीमा तक
किसी अबूझ यात्रा पर,
आश्चर्य से देखता हूँ आँखें फाड़े
हर नाव का सवार है निपट एकाकी
अपने ही एकांत में गुम
गूँज रही हैं अनंत सन्नाटे की आवाज़ें
आत्मा के नील विस्तार में
पीछे छोड़ आया हूँ
तमाम सहयात्रियों को
जो चले थे कुछ क़दम यात्रा में साथ
किसी आईने में दूर जाते दृश्यों की भाँति
स्मृतियों के कुहासे में गुम होते जा रहे सारे पड़ाव
लहरों के उठने-गिरने का क्रम अनवरत जारी है
धूप से पके दिन और ठिठुरती रातों के
आने-जाने के बीच
समय स्थिर खड़ा है
घटता हुआ निरंतर अपनी स्फीति में
क़ुतुबनुमा की टूटी हुई सुइयाँ
असमर्थ हैं बता पाने में
गंतव्य की वांछित दिशा
नाव के छिद्रों से रिसने लगा है जल
एक स्थायी भय की तरह
उलीच रहा हूँ जल अहर्निश
ताकि नाव भारी न हो जाए।

मरुस्थल

उजालों के तमाम शहर
मरुस्थलों के उस पार खड़े देखते हैं
धीरे-धीरे पेड़ों की फुनगियों से उतरतीं
अंधेरे की जलधाराओं को
साँझ की घाटियों में।
डोंगियों में नींद हिचकोले लेती
बहती रहती है स्वप्नों की गुफाओं में और
रात्रिचरों की आवाजाही की तेज़ आहटों के बीच
आतंक धीरे-धीरे फैलता है
मस्तिष्क के गुलाबी तंतुओं में
हम डोलते रहते हैं
आक्रोश की बिना आवाज़ वाली चीख़ों
और मौन की डरपोक स्वीकृतियों के बीच।

हमारा समय
गुज़रता है छीलता हमारी आयु की स्फीति
टूटकर गिरे हुए पंखों की भाँति बीते हुए दिन
काम आएँगे स्मृतियों की सजावट के
उड़ने के लिए चाहिए ज़िन्दा पंख
गहराइयों के अंधेरों का पता नहीं होता
जल की सतह को छूकर बहने वाली हवाओं को और
नहीं पता होते
मछलियों के एकाकी दुःख।

दुःखों के पहाड़ों के उस ओर
घाटियों में उगे प्राचीन शाल वनों में
सुलगते हैं अतृप्त लिप्सा के पत्थर
और वृद्ध और वंध्या महत्त्वाकांक्षाएँ
राजनीति के जहरीले धुएँ के पंखों पर सवार
रौंदती हैं युवा स्वप्नों के इंद्रधनुष,
स्मरण रहे व्यर्थ न जाएगी तितलियों की प्रतीक्षा
एक दिन फूलों की आँच में जल जाएँगे
काँटों के सारे वन और
शहर अपने उजालों के शव समेटता
रोता रहेगा अंधेरों के मरुस्थल के उस पार।

एक प्रकाशस्तम्भ
अपने अकेलेपन के बियाबान में खड़ा बाँटता है
दूसरों को अकेले न होने का एहसास
दुःख के महासागर में टूट चुके पालों वाली नौकाओं को
डूबने से नहीं बचा पाएगी
सुदूर चमकती एकाकी रोशनी,
अंधेरो से संघर्ष के लिए खोज निकालो
डूबी हुई नावें समुद्र की तलहटियों से खींचकर
और दुरुस्त करो अपने हौसलों की पतवारें
कब तक गाते रहोगे आर्त प्रार्थनाएँ
हवाओं के देवता की।

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