Poems: Sudhir Sharma
अक्टूबर की शामें
बाक़ी सब वैसा ही है बस अक्टूबर की शामें अब ठण्डी नही होतीं…
दोपहरों में विविध भारती मिस करता है शहर तुम्हारा…
10:25 की नीली वाली बस नहीं आती,
छूट गयी है…
हाँ… 6:15 पर सनराइज़ होता है अब भी
लेकिन सुबह भागने लगती है उठते ही…
अपने घर सब टूट गए हैं, आँगन से लगते हैं सारे
नीम लगाया था नानी ने, बेघरबार हो गया वो भी
कड़वे हो गए और तजुर्बे बेचारे के…
बस स्टॉप के टपरे में वो चने बेचने वाली याद है बुढ़िया इक बैठा करती थी..??
गए बरस वो गुज़र गयी कोई कहता था….
और पता है वो जिस पुल पर बैठ के हमने उम्र गुज़ारी थी इक पल में फ़ोरलेन होने वाला है….
बैठने की अब जगह नहीं है….
बाक़ी सब वैसा ही है बस.. अक्टूबर की शामें अब ठण्डी नहीं होतीं…
गिफ़्ट पैक
छुट्टी के कुछ सीले-सीले दिन रख देना
रख देना कन्फ़र्म टिकट इक
मन से मन के स्टेशन का…
या फिर लॉन्ग ड्राइव की सड़कें
और ढाबों की दाल मखानी
दूर पहाड़ों में उतराती
ठण्डी और मलमली फुहारें
बासी अलसाई कुछ सुबहें
चाय के कप में डूबी शामें
बेतरतीब-सी कुछ दोपहरें
गर सस्ती मिल जाएँ तुमको…
गिफ़्ट पैक में सब रख देना
मुझको कुछ देना चाहो तो…
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