शहर से गुज़रते हुए प्रेम
मैं जब-जब शहर से गुज़रता हूँ
सोचता हूँ
किसने बसाए होंगे शहर?
शायद गाँवों से भागे
प्रेमियों ने शहर बसाए होंगे
ये वो अभागे थे,
जो फिर लौटना चाहते थे गाँव
पर लोक-लाज से ठिठक गए पाँँव
सिर्फ़ यादों में रह गए गाँँव।
शहर से गुज़रते हुए
मैंं जब भी गाँव को याद करता हूँ
गाँव आकर भर लेता है मेरी बाथ,
मैं सोच भी नहीं सकता
कि छोड़ दूँ उसका हाथ।
फिर मैं भी रोने लगता हूँ
अपने बिछुड़े गाँव के साथ।
कविता पढ़ना
मैं कविताओं को पढ़ता नहीं
सुनता हूँ
इसलिए पंखा बन्द कर देता हूँ
कि कोई भी शोर न हो।
मैं कोशिश करता हूँ
कविताओं की आवाज़ मुझ तक पहुँचे
मूल रूप से उसी भाव के साथ
जो वे कहना चाहती हैं।
फिर भी कोई ना कोई शोर
होता रहता है इस दरम्यान-
पत्नी चाय के लिए लगाती है आवाज़
बच्चा आकर रोता है गोद के लिए
बरामदें में करते हैं कबूतर गुटरगूँ।
फिर मैं चाय पीकर
बच्चे को गोद में ले
धीमा पंखा चलाकर
कबूतरों की गुटरगूँ के साथ
सुनता हूँ कविताएँ।
बेबसी
सर्दी की रात तीसरे पहर
जब चाँद भी ओस से
भीगा हुआ-सा है,
आकाश की नीरवता में
लगता है जैसे रो रहा हो
अकेला किसी की याद में,
सब तारें एक-एक करके चले गए हैं।
बार-बार आती है कोचर की आवाज़
रात के घुप्प अँधेरे को चीरती हुई
और दिल के आर-पार निकल जाती है,
पाँसूओं को तोड़ती हुई
झींगुरों की आवाज़ मद्धम हो गई है
रात के उतार के साथ।
हल्की पुरवाई चल रही है
काँप रही है नीम की डालियाँ
हरी-पीली पत्तियों से ओस चू रही है,
ऐसे समय में सुनायी देती है
घड़ी की टिक-टिक भी
बिल्कुल साफ और लगातार बढ़ती हुई।
बाड़े में बँधें ढोरों के गलों में घण्टियाँ बज रही हैं
अभी मन्दिर की घण्टियाँ बजने का समय
नहीं हुआ है,
गाँव नींद की रज़ाई में दुबका है।
माँ सो रही है पाटोड़ में
बीच-बीच में खाँसती हुई
कल ही देवर के लड़के ने
फावड़ा सर पर तानकर
जो मन में आयी
गालियाँ दी थीं उसे
पानी निकासी की ज़रा-सी बात पर।
बड़े बेटे से कहा तो जवाब आया-
“माँ! आपकी तो उम्र हो गयी
मर भी गई तो कोई बात नहीं
आपके बड़े-बड़े बेटे हैं!
हमारे तो बच्चे छोटे हैं!
हम मर गए तो उनका क्या होगा?”
माँ सोते हुए अचानक बड़बड़ाती है
डरी हुई, काँपती हुई,
घबराती आवाज़ में रुदन
सीने में कुछ दबाव-सा है।
मैं माँ के बग़ल वाली खाट पर सोया हूँ
मुझे अच्छी नींद आती है माँ के पास
एक बात ये भी है कि-
माँ की परेशानी का भान है मुझे
बढ़ रही है जैसे-जैसे उम्र
माँ अकेले में डरने लगी है।
जब तक बाप था
माँ दिन-भर खेत क्यार में खटती
रात में बेबात पिटती
मार-पीट करते बाप की भयानक छवियाँ
माँ को दिन-रात कँपाती
बाप के मरने के बाद भी उसकी स्मृतियाँ
माँ को सपनों में डराती
फिर देवर जेठों से भय खाती रही
और अब अपनी ही औलाद जैसों का डर।
माँ की अस्पष्ट, घबरायी हुई
कँपकपाती, डर खायी आवाज़
जो मुझे सोते हुए बुदबुदाहट लग रही
जगने पर बड़बड़ाहट में बदल जाती है
मैं उठकर माँ के कंधे पर हाथ रखता हूँ
माँ बताती है कि-
“वह फावड़ा लेकर मुझे फिर मारने आ रहा है!
मैं उसे कह रही हूँ-
आ गैबी!
आज मेरे दोनों बेटे यहीं है
इनके सामने मार मुझे!”
मैं चुपचाप सुनता हूँ
सारी बात बुत की तरह,
कुछ नहीं कह पाता।
माँ भी चुप हो जाती है
उसे थोड़ी देर बाद उठना है
मैं झूठमूठ सोने का बहाना करता हूँ
मुझे भी सुबह उठते ही ड्यूटी जाना है।