प्रतीक्षा हमारे ख़ून में है

जिन दिनों हम गर्भ में थे
सरकारी अस्पताल की लाइन में लगी रहती माँ
और डॉक्टर लंच के लिए उठ जाता, कहते हुए—
‘प्रतीक्षा करो।’

जिन दिनों हम गोद में थे
दिन-भर सरकारी राशन की दुकान पर बैठी रहती माँ
शाम ढले कोटेदार कहता— ‘देर हो गयी
कल जल्दी आना।’

जिन दिनों हमने चलना सीखा
दिन-रात बैलों की तरह जुते रहते हमारे पिता
पसीने में भीगी खेतों में मिट्टी हुई जाती माँ
मेड़ पर बैठे हम बदली से सूरज ढकने की प्रतीक्षा करते

भाइयों! हम किसानों और मज़दूरों की संतानें हैं
प्रतीक्षा हमारे ख़ून में है
(या भर दी गयी है
कौन कहे?)

हम मिट्टी में बीज दबाकर प्रतीक्षा करते हैं
हम नील गायों, साँड़ों और साहूकारों से लड़ते हैं
हम रात-भर जागकर फलियों में दूध गढ़ाने की
प्रतीक्षा करते हैं

हमें ओलों का भय रहता है लेकिन बारिश की प्रतीक्षा करते हैं
हम नहीं चाहते कभी कुआँ-तालाब सूखें
या वृक्षों से असमय पत्ते झरें
चिरई-चुरङ्गुर भूखे मरें
हम धूप से
प्रार्थना करते हैं
हम हवा से प्रार्थना करते हैं!

हम गाँव छोड़कर शहरों में मज़दूरी करते हैं
और वर्ष-भर घर लौटने की
प्रतीक्षा करते हैं।

बच्चे बोलने से नहीं डरते हैं

हमने रक्त की धार से असंख्य बेड़ियों को काटा
हमने हड्डियों को गलाकर खेतों में छीटा
स्वप्नों को तपाकर बीज बनाया
हज़ारों पीढ़ियों के संचित आँसुओं के समुद्र से
इस पृथ्वी को सींचा और रहने-जीने लायक़
जगह बनायी

लेकिन सदियों की परछाइयाँ पीछा करती हैं
बेड़ियों के अदृश्य निशान आत्मा और देह को
कसते हैं

वह हमारी आत्मा को बाँधना और आवाज़ दबाना चाहते हैं
मनुष्यता के हत्यारे चाहते हैं कि वह जो दिखाएँ—
हम वही देखें, जो सुनाएँ वही सुनें,
जो कहें वही समझें और उनकी
जय-जयकार करें

वे डराते हैं अपनी महान दोगली संस्कृति के भय से
वे हमें डराते हैं पीछे खड़ी हत्यारी भीड़ के भय से
दरअसल वे हमें बाँटना चाहते हैं
अपनी छद्म राष्ट्रीयता के कुएँ में
डुबाना चाहते हैं

वे डरते हैं हमारे साझा दुःखों के हथियार बनने से
वे डरते हैं हमारे बच्चों के एक साथ चलने से
वे डरते हैं सोचने और लिखने वालों से
वे डरते हैं कि बच्चे अब बोलने से
नहीं डरते हैं!

प्रेम जिसे कई जन्मों तक स्थगित किया

[एक लोहार के बेटे की प्रेम कथा]

यूनिवर्सिटी में वह थाम सकती थी किसी का भी हाथ
जिनके पास उपलब्ध थीं अच्छी बाइक, महँगी कार
घूम सकती थी रोज़ मॉल, रेस्टोरेंट्स
पीवीआर

लेकिन उसने मुझे चुना जबकि मैं नहीं था पात्र
विद्यार्थियों के बीच उपेक्षित एकलव्य
गुरुओं की सभा में कर्ण
मैं नहीं था पात्र

बावजूद इसके उसने आगे बढ़कर थामा मेरा हाथ
मेरा हाथ जो काला और हथेलियाँ खुरदुरी थीं
मैंने कहा मेरी देह में रक्त नहीं लोहा है
बेटा हूँ मैं लोहार का

उसने कहा— ‘उसे अब फ़र्क़ नहीं पड़ता
कोई कुछ भी कहे…’ मुझे पड़ता था
यदि उसे कोई कुछ कहे

मेरे हृदय पर मेरी जाति और रंग का आवरण था
जब वह कोई फूल देती तब ज़रूर
कुछ टूटता

मैंने पाया मैं प्रेम में हूँ
प्रेम जिसे मैंने पिछले कई जन्मों तक स्थगित किया

एक रात जब मैं स्वप्न में उसके बहुत क़रीब था
उसकी रक्ताभ पीठ पर अपनी अंगुलियों के
नीले निशान देखे
और वह चीज़ जो कभी मेरे हृदय को ढकती थी
उसके चेहरे पर दिख रही थी!

सुबह मैंने पाया उसके पिता मेरे सामने हैं
वैसे ही जैसे कर्ण समक्ष उसकी माँ
एकलव्य के सम्मुख गुरू

एकलव्य ने दिया अँगूठा
कर्ण ने कवच-कुंडल
और मैंने…

‘प्रेम में डूबा बेसुध हृदय’।

मेरी भाषा ही मेरी जाति है

मैं चाहता था कि आपको बताऊँ मिट्टी के गर्भ में बीज
और माँ के गर्भ में शिशु एक जैसे स्वप्न देखते हैं
हँसते और डरते हैं

शिशु अँखुओं के मुँह धुलाने को ही ओस झरती है
और धूप आती है फ़सलों और चिड़ियों को जगाने
वृक्षों की पत्तियों को डाट काम पर लगाने
फूलों-फलों को सहलाने

मैं आपको बता सकता हूँ पक्षियों के रूठने के बारे में
किस मौसमी फूल पर कब किस रंग की
तितली दिखायी पड़ती है
और किस फूल की पंखुड़ियाँ कितने दिनों में झरती हैं

मेरी चिन्ताओं में है— अनियमित क्यों है बारिश
क्यों सूख जा रहे तालाब हर बार कुछ जल्दी
क्यों झर रहे हैं वृक्षों से असमय पत्ते
कहाँ चले गए चिरई-चुरङ्गुर
क्यों भटक रहे मज़दूर
और किसान क्यों कर रहे आत्महत्या?

लेकिन आप हैं कि आपको कुछ मतलब ही नहीं
आप मुझसे मेरी जाति पूछते हैं?

मैं आपसे पूछता हूँ
क्या आप बता सकते हैं अन्न की जाति क्या है?
ओस बूँदों और आँसुओं की जाति क्या है?
वृक्षों और पक्षियों की जाति क्या है?
नदियों-तालाबों-कुओं की जाति क्या है?
इनमें किसी एक ने भी कभी मुझसे मेरी जाति नहीं पूछी
लेकिन मैं आपको बताता हूँ किसानों और मज़दूरों की
कोई जाति नहीं होती

रही बात मेरी तो जान लीजिए मज़दूर-किसान
मेरे पिता हैं, पृथ्वी मेरी माँ है, पुस्तकें मेरा धर्म
और मेरी भाषा ही मेरी जाति है।