Poems by Vishal Singh

मोक्ष

जीवन की नाव तैरती है समय पर
ये साबुत नाव धीरे-धीरे डूबने लगती है,
समय का एकलौता तट मन है
हमारी नाव जिन तटों से बंधी हो
उन तटों पर खड़े-खड़े
अपनी डूबती हुई नाव को देखा जा सकता है
उन तटों पे खड़े-खड़े
मुस्कुराया जा सकता है
उन तटों के समय में मग्न होते-होते
उन ही तटों के समक्ष समय चक्र को तोड़कर
ब्रह्माण में विलीन हुआ जा सकता है
अथवा पायी जा सकती है एक नयी साबुत नाव
और उसे बाँधा जा सकता है नये तटों पर…

कल्पित बिटिया के नाम एक चिट्ठी

प्यारी बिटिया, तुमसे जुड़ा सबकुछ बहुत याद आता है..!

कैसे मैंने और तुम्हारी माँ ने
हमारे नामों से दो-दो अक्षर निकालकर ,
तुम्हें तुम्हारा नाम दिया था

कैसे वो और मैं तुम्हें सोचा करते थे,
देर तक एक दूसरे पे टिके-टिके,
मुस्कुराते-मुसकुराते..!

चेहरे को एक मासूम शर्म की लाली से पोतकर
कैसे हम तुम्हारे खिलौनों से लेकर
ग्रेजुएशन तक की बातें कर लिया करते थे..

प्यारी बिटिया,

तुम्हारी रमणीयता की सीमा तक
तुम्हारी कल्पना करने में मैं असमर्थ रहा
मगर तुम्हारी माँ का ये मनाना है कि
मेरी और उनकी कल्पना की मिली-जुली छवि जितनी सुंदर हो तुम…

मेरी पीठ पर तुम्हारे नन्हें कदमों का दबाव,
तुम्हारे कोमल तलवों को सहलाने पर तुम्हारा
खिल-खिलाके हँसना

सोचता भर था तो मेरे पर निकल आते थे!

सबकुछ रह रह के याद आता है..!

प्यारी बिटिया,

नीरवता में मुझे प्राय:
तुम्हारी किलकारियाँ सुनाई देती हैं…

तुम्हारे बारे में सोचकर कल-तक
गद-गद हो जाने वाला मेरा हृदय,
आज तुम्हारे विचार मात्र से चकनाचूर हो जाता है!

कल तुम्हारी माँ का विवाह है ,
वो विवाह जिसका साक्षी समाज होगा..
वही समाज
जिसने मुझसे और तुम्हारी माँ से तुम्हारा अस्तित्व छीन लिया

चलो, अब मैं भी चला सोने…
ये मेरे जीवन की अंतिम रात जो है!

माना तुम्हारे भाग्य में अस्तित्व नहीं है,
मगर तुम्हारे भाग्य में तुम्हारी माँ के चित्त का आसरा है;
आशीर्वाद!

तुम्हारा,
कुजात पिता।

मैं एक हूँ

मैं एक हूँ,
अनंत का पहला छोर
मेरे जैसे अनगिनत अंको से मिल के
अनंत बना है
अनंत मेरे अस्तित्व से अंजान है
अनंत के आगे मेरा वर्चस्व नगण्य है
मैं एक हूँ

मैं अनंत को उजाड़ सकता हूँ
मैं अनंत को एक पद नीचे उतार सकता हूँ
मैं अनंत को अंत के एक अंक समीप ले जा सकता हूँ
मैं अनंत का दूसरा छोर उजागर कर सकता हूँ
मैं एक हूँ..

मैं अनगिनत दशमलव प्रणाली के अंकों से बना हूँ
मेरे अंदर छिपे बैठे हैं अनगिनत ‘अनंत’

मेरे सिरहाने बैठा है शून्य,
जो अनगिनत अनंतों को निगल के बैठा है..
मैं अनंत का समूह हूँ
मैं एक हूँ!

यह भी पढ़ें:

शिवा की कविता ‘हम अनंत तक जाएँगे’
कबीन फूकन की कविता ‘एक पिता’
ज्ञानरंजन की कहानी ‘पिता’

Recommended Book:

 

प्रशस्त विशाल
25 अप्रैल, 2000 को भोपाल (म.प्र.) में जन्मे प्रशस्त विशाल एक युवा उद्यमकर्ता, सिविल अभियांत्रिकी छात्र व लेखक हैं । ई-मेल पता : [email protected]