अंशतः अमान्य विचारों का समीकरण
वह प्रभावकारी नहीं है
उसमें संवेदन को परिवर्तित करने की क्षमता नहीं
उससे समाज नहीं बनता है
उसके स्रष्टा दो-तीन प्रकार के नहीं होते—
(अ) प्रतिबद्ध
(ब) अप्रतिबद्ध
(स) अप्रतिबद्ध-प्रतिबद्ध, अज्ञात अवस्था के स्रष्टा आदि…
न वह, न उसका स्रष्टा, कोई मेरे अहित का उत्तरदायी नहीं
वह और उसका स्रष्टा निरंकुश हैं
रचनात्मकता के देवता से उन्हें अराजकता का वरदान प्राप्त है
मैं कौन?
मैं तानाशाही की तरफ़ बढ़ते देश का लोकतंत्र हूँ, मैं सम्प्रभु देश की सीमा और घर के बीच मथा जाता सिपाही हूँ, मैं सुकमा के जंगलो में मारा जाता आदिवासी हूँ, मैं कठुआ की आठ साल की आसिफ़ा बानो हूँ, मैं आक्सीजन की कमी से मारा गया, गंगा किनारे ‘दफ़नाया’ गया हिन्दूराष्ट्र का समथर्क हूँ, मैं सिटी-सेंटर के बाहर कचरे का पहाड़ हूँ, मैं साम्प्रदायिक हिंसा के ठीक पहले दिया गया भाषण हूँ, मैं आधुनिकता में अल्पकालिक सम्बन्ध हूँ, मैं शोषक की स्मृति में भटकता बचपन हूँ, मैं न्यायमूर्ति के प्रति अपराधी की आँखों में तैरती सहानुभूति हूँ, मैं सम्पादक के कोल्हू का बैल हूँ, मैं आधुनिक राष्ट्र राज्यों द्वारा आतंकी क़रार दिए संगठन में पलती बच्ची हूँ, मैं घर से भागी गर्भवती पागल औरत हूँ, मैं सवर्णों की क्रूरता का प्रमाण हूँ, मैं वैश्या हूँ, मैं कुरूप हूँ, मैं किन्नर हूँ, मैं समलैंगिक हूँ, मैं संज्ञा हूँ, मैं सर्वनाम हूँ…
मैं हो रही हूँ और मेरी नियति है होना
मैं सब कुछ होने के रास्ते पर चलती हुई आधी हूँ
मगर मुझे ख़ौफ़ आता है
फ़ासीवादी साहित्यकार होने से
अतएव संविधान से संशोधन के प्रावधान का विचार लेकर अपने लिखे प्रत्येक शब्द को यथास्थिति तार्किकता से संशोधित करने की सुभीता चाहती हूँ
तदर्थ विचारों और शब्दों का समीकरण काग़ज़ पर बैठने से पूर्व लिखूँगी— ‘सृजनाधीन कृति’
मैं उत्तर-सकारात्मक, उत्तर-आधुनिक, उत्तर-सत्यता काल में
उदार अराजकता से भरे स्यादवादी साहित्य को विभिन्न लेंस से देखती
पितृसत्तात्मक एवं ब्राह्मणवादी विचारों से पोषित परिवार की
मानसिक तनाव से ग्रस्त सबसे बड़ी बहू की सबसे छोटी बेटी हूँ
मैं जानती हूँ
प्रेम जीवन की जड़ है
धरती हरी
आकाश नीला
फूल सुन्दर हैं
मैं जानती हूँ मेरा बदन कैसा है
क्या आप जानते हैं कि क़ैदी स्वप्न में आज़ादी और चेतना में चुनौती के गीत क्यों गाते हैं?
क्या आप बता सकते हैं स्वप्न और चेतन में कितने युगों का अंतर है?
क्या आप बता सकते हैं चुनौती से आज़ादी तक कितनी पीढ़ियों की खपत है?
मुझे बताइए नरक और जीवन में कितने आँसुओं का अंतर है…
मैं जीवन की बीहड़ सच्चाइयों में जीती हूँ
और भाषा को कोमल, कृति को रचनात्मक बनाए रखने के प्रयास में
बारम्बार मुँह की खाती हूँ
मगर बाज़ नहीं आती दोहराने से—जीवन अपनी इच्छा से निचोड़ी गई साँसों का अर्क है और साहित्य साँसे निचोड़ने का जतन।
कामना
उदासीनता भली थी
तटस्थ रहना सुखद
पत्थर होना सहूलत थी
अबोध रहना संतोषजनक
दुनिया की दलदल में पैर रखना भूल थी
उबरना चाहती हूँ
मगर धँसती ही जा रही हूँ
नहीं होना चाहती किसी बात की पक्षधर
न खड़ी करना चाहती हूँ, विरोधी विचारों की दीवार
मंथन छलता है मुझे हर बार
भ्रम अपनी पूरी क्षमता से डालता है धम्माल
तार्किकता का तराजू कपटी है
समस्याएँ मेरी सगी नहीं
नहीं करना उनका विश्लेषण
मैं हँसना चाहती हूँ, बेनियाज़ी से
या अपरिचित आँखों से तकना
तय नहीं होता मुझसे कुछ
यक़ीन की ठोस ज़मीन खिसकती जाती है
कहाँ है अकलुष-निर्मल-शुभ वेदी
धरना है पाँव
मानवी-मानव, दानवी-दानव, देवी-देवता
बस पाँव-भर न्याय की ज़मीन।
दुःस्वप्न
वे देश की जनसंख्या का अधिसंख्य हैं
सम्भवतः इक्यावन प्रतिशत
वे घरों में हैं सलीक़े से साड़ी में लिपटे
पानी के छपाकों से नींद के थक्कों को छुड़ाते
चूल्हे से राख उठाते, तुलसी में जल चढ़ाते
अदरक कूटते, मसाला पीसते
वे गलियों में हैं बुर्क़े में मलबूस
ठेलों से बोटियाँ तुलवाते
आठ महीने के गर्भवत
ग़ुसलख़ाने में डेढ़ साल की बेटी की लंगोट मलते
स्कूल बस छूट जाने के डर से परथन सने हाथों
बेटे को जल्दी-जल्दी नाश्ता खिलाते
जिसके जन्म पर शोकाकुल हुआ था नैहर-पीहर
उनकी पत्नियाँ अख़बार खोलकर चाय-नाश्ते के इंतज़ार में बैठी हैं
कुछ जा चुकी हैं मॉर्निंग वॉक पर
कुछ झाग भरे मुँह में ब्रश घुमाती ताज़ी हवा महसूस रही हैं
कुछ दूध, फल, सब्ज़ियाँ लेकर लौट रही हैं घरों की तरफ़
कुछ कबूतरों को दाना चुगा रही हैं
कुछ गाय को बासी रोटियाँ खिला रही हैं
एक अर्धनग्न महिला बग़ल वाली छत पर व्यायाम करती महिला के साथ मिलकर
कॉलोनी के बलात्कृत लड़के के चरित्र का पोस्टमार्टम कर रही है
शीर्षासन करती महिला का अर्धांग, पत्नी के लिए चाय रख लौट गया है किचन की ओर
बालकनी में पौधों को पानी देती अधेड़ महिला—जिन्हें आज शाम ‘मानवाधिकार आयोग’ की ‘चेयरवुमेन’ की पार्टी में ‘सह-पति’ जाना है—का भी मानना है—
‘लड़कियों की क्या ग़लती, जब लड़के छोटे कपड़ों में रात बाहर निकलेंगे तो यही होगा’
दिन चढ़ आया है, पत्नियाँ जा चुकी हैं ऑफ़िस
बाज़ार और सड़कें हर उम्र की लड़कियों, महिलाओं से अटी हैं
सरकारी स्कूलों की दीवारें ‘बेटा बचाओ, बेटा पढ़ाओ’ के नारे बुलंद कर रही हैं
दफ़्तरों में पुरुषों के ख़िलाफ़ यौन उत्पीड़न को रोकने के लिए ‘शिकायत सेल’ बन गए हैं
‘पुरुष एवं बाल विकास मंत्रालय’ बनाकर ‘पुरुष-सशक्तिकरण’ के बैनर तले
हथकरघा केन्द्रों, पुरुष शक्ति केंद्रों का गठन किया गया है
पुरुषों के सामाजिक, आर्थिक उत्थान के लिए सैकड़ों योजनाएँ सरपट दौड़ रही हैं
सोलह सोमवार, करवाचौथ, तीज व्रत, बृहस्पतिवार और एकादशी व्रत न करने वाले
लड़के और विवाहित पुरुषों को संस्कृति का भक्षक माना जा रहा है
मंदिरों के गर्भगृह पर भी पुजारिनों की ठेकेदारी है
मठों में साध्वियों की शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति का विशेष ध्यान रखा जा रहा है
मस्जिदों में मर्दों का आना ममनूअ’ है (सहूलत के लिए) मुल्लानियाँ क़ुरआन की तफ़्सीर कर रही हैं कि चार शादियों की इजाज़त औरतों को है मर्दों को नहीं
वे माँओं, बहनों, पत्नियों की इजाज़त के बिना घर के बाहर क़दम नहीं रख सकते
उनकी प्रत्येक गतिविधियों पर महिलाओं की कड़ी नज़र है
परिवार एवं समाज में उनकी स्थिति बिल्कुल देवताओं की तरह पूज्यनीय है
बालक भ्रूण-हत्या पर प्रतिबन्ध लग चुका है
‘ऑनर किलिंग’ और ‘मैरिटल रेप’ पुरुषों का जीवन कौड़ियों के मोल तोल रहा है
जली-कटी-धुनी देह को मिलती विलक्षण उपमाओं से वे गदगद हैं
‘आज कल के लड़के क्या नहीं कर रहे?’, हमारे लड़के लड़कियों से कम हैं क्या? जैसे जुमले इसके-उसके मुँह में ठुसे पड़े हैं
अफ़सोस उन पुरुषों एवं महिलाओं को ‘पुरुषवादी’ कहकर गालियाँ दी जा रही है
जिनका उद्देश्य लैंगिक अन्तर को मिटाकर बराबरी का सामज बनाना है
उठो! कब तक सोओगी…
उठो!
ऐ तुम!
पुरुष वर्चस्व के इतिहास की
सलाखों से बिंधी
वर्तमान में खड़ी स्त्री के
किसी चुभते-से सवाल के चहरे को
विरासत में मिले दम्भ-नख से
जब चीरने से रोकते हो ख़ुद को
तब तुम प्रसव पीड़ा से गुज़रते हो
ऐ तुम! मानवता को जन्म दे सकोगे?
अप्राकृतिक दुनिया
मेरे जन्म से पूर्व इनसानों ने जीवन को सभ्य बनाने के तरीक़े विकसित कर लिए थे
लिंग को शक्ति और शक्तिहीन के ख़ानों में बाँटा जा चुका था
धर्मों के बाड़े में इनसानों को बांधा जा चुका था
भू-भागों पर कंटीले तार बिछाकर लगाकर सैनिक तैनात किए जा चुके थे
विचारधाराएँ अपनी शाखें फैला चुकी थीं
पर्यावरण का निम्नीकरण कर सतत-विकास को जन्म दिया जा चुका था
अच्छे-बुरे, सही-ग़लत की श्रेणियाँ बनायी जा चुकी थीं
समाज, सरकार, संस्थाएँ, समूह, संगठन गढ़े जा चुके थे शान्ति भंग की जा चुकी थी
भावनाएँ मशीनी बनायी जा चुकी थीं
समय छलनी किया जा चुका था
किस तरह कचोटता है मन
एक प्राकृतिक क्रिया ने
मुझे इतनी अप्राकृतिक दुनिया में झोंक दिया
देने वाले! जीवन मुझे इतिहास-रहित पूर्णतः प्राकृतिक चाहिए।
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