स्वाद
शहर की इन
अंधेरी झोपड़ियों में
पसरा हुआ है
मनो उदासियों का
फीकापन
दूसरी तरफ़
रंगीन रोशनियों से सराबोर
महलनुमा घरों में
उबकाइयाँ हैं
ख़ुशियों के
अतिरिक्त मीठेपन से
धरती घूमती तो है
मथनी की तरह लगातार
फिर क्यों नही
एक-सा हो जाता है
ये स्वाद हर कहीं!
थकान
मुझे थकान लग रही थी
गाँव से एक शादी से लौट रहा था बस में
पता नही कैसा इंतज़ाम था
घरातियों का
बड़े बेकार गद्दे थे वो
जिन पर नींद भी नहीं आयी ढंग से
फिर शादी की वजह से
कल दोपहर की नींद भी तो न ले सका
मैंने अपने बदन को अटेरा
थोड़ी देर के लिए रास्ते में
किसी ढाबे पे रुकी थी बस
कि मेरी नज़र
सड़क किनारे पर
भवन निर्माण में लगी
एक मज़दूरन पर पड़ी
एक-एक बार में
आठ-आठ ईंटें ढोकर सिर पर
भरी धूप
वो दो मंज़िलों की चालीस सीढ़ियाँ
चढ़ती-उतरती थी
और फिर किनारे आकर
रेंगकर तेज़ रफ़्तार चलती सड़क की ओर बढ़ते
अपने बच्चे को उठाकर
फिर से छाँव में ले आती थी
सच मानिए
पिछले दो दिन की मेरी थकान को
इस दृश्य ने सिर्फ़ दो मिनट में
शर्मसार कर दिया।
अन्तिम उत्तर
प्रश्न के भीतर है प्रश्न
जैसे खोल के भीतर दूसरा खोल
दूसरे के भीतर तीसरा
कितने भी खोल फोड़ दो
उघाड़ दो कितनी ही तहें
एक नये प्रश्न की परत
लहराती मिलती है
कौतुक मन रहता है प्रयासरत
खोल देने को उस अंतिम प्रश्न की तह
जिसके बाद भीतर से झाँकेगा
सिर्फ़ अन्तिम उत्तर
बिना किसी प्रश्न के साथ
किन्तु उसका हर प्रयास व्यर्थ है
हर बार पूरी उम्मीद से
लाखों प्रश्नों को अन्तिम मान
खोल लेने के बाद भी
मायावी प्रश्न ‘क्यों’ पीछा नहीं छोड़ता
आख़िरकार वो
छद्म सन्तुष्टि के लिए रचता है
अपना अन्तिम उत्तर
और लिख देता है हारकर— ‘ईश्वर’।
मासूम भेड़ें
उम्मीद के दाँत अब किटकिटाने लगे हैं
अलाव के लिए ख़त्म हो रही हैं
हौसलों की लकड़ियाँ
नारों का शोर मद्धम हो रहा है
जुड़ने लगी हैं उसमें खाँसियों की खफ़-खफ़
चीज़ों के बदलने की प्रतीक्षा
निराशा में बदल रही है
परीक्षा के अन्त के आसार दृश्य में नहीं दिखते
कोई ओट में छिपकर बढ़ा रहा है अवधि
कुछ साथी मूर्छित हैं
कुछ ने मृत्यु चूम ली है
हुंकार अब भी है पर पहले से कम सघन
राजा ने मखमल के आसन पर बैठ
मंत्रियों संग रचा व्यूह
हर बार भेड़ के शरीर से कुतरता था ऊन
इस बार कुतर दिया है पीठ का माँस
स्वभावतः सभ्य आहत भेड़ें
पीड़ा दर्ज करने के लिए जाती हैं
राजा के महल के पास
रास्ता कठिन है, अवरोध अनेक
वे अवरोध पर खड़े द्वारपाल से कह रही हैं अपनी पीड़ा
और अचरज में हैं सबके मुँह से सुनकर एक ही बात
“पराक्रमी राजा ने यह सब
तुम्हारी भलाई के लिए किया।”
राजा सभ्यता की परीक्षा ले रहा है
भीड़ का घाव आश्वासन से नहीं भरता
भीड़ मरहम की उम्मीद में
अब भी शान्तिपूर्वक खड़ी है।
वे जो झील के जल की तरह
सदा शान्त हैं ऊपर से
उन्हें कमतर मत आँको राजन
एक वलय उनके भी आश्रय में रहता है
उनकी शान्त सतह के नीचे
वे जब चाहें तुम्हारे मलमल के अभिमान को
चीथड़ों में बदल सकते हैं।
कंकड़
उसने हमसे बच्चों की भाषा में कहा—
“देखो चिड़िया!”
जैसे ही हम
आकाश की ओर मुड़े
उसने हमारी थाली में परोस दिए
क़ानून के दानों के साथ
दानों के रंग के कंकड़।
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