अदनान कफ़ील ‘दरवेश’ का जन्म ग्राम गड़वार, ज़िला बलिया, उत्तर प्रदेश में हुआ। दिल्ली विश्वविद्यालय से कम्प्यूटर साइंस में ग्रेजुएशन करने के बाद उन्होंने जामिया मिल्लिया इस्लामिया से हिन्दी साहित्य में एम.ए. किया। अब वहीं से पी.एच.डी. कर रहे हैं। हिन्दी की लगभग सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं तथा वेब ब्लॉग्स पर उनकी कविताएँ प्रमुखता से प्रकाशित एवं प्रशंसित हैं। अदनान की कविताओं के अंग्रेज़ी, मराठी, कन्नड़, बांग्ला तथा उड़िया अनुवाद प्रकाशित हुए हैं। वे ‘भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार’ (2018), ‘रविशंकर उपाध्याय स्मृति कविता पुरस्कार’ (2018), ‘वेणुगोपाल स्मृति कविता पुरस्कार’ (2019-2020) से सम्मानित हैं।
अदनान का नया कविता संग्रह ‘ठिठुरते लैम्प पोस्ट’ हाल ही में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है, प्रस्तुत है उसी से कुछ कविताएँ—
शहर की सुबह
शहर खुलता है रोज़ाना
किसी पुराने संदूक़-सा नहीं
किसी बच्चे की नरम मुट्ठियों-सा नहीं
बल्कि वो खुलता है सूरज की असंख्य रौशन धारों से
जो शहर के बीचो-बीच गोलम्बरों पर गिरती हैं
और फैल जाती हैं उन तारीक गलियों तक
जहाँ तक जाने में एक शरीफ़ आदमी कतराता है
लेकिन जहाँ कुत्ते और सुवर बेधड़क घुसे चले जाते हैं
शहर खुलता है मज़दूरों की क़तारों से
जो लेबर-चौकों को आरास्ता करते हैं
शहर खुलता है एक शराबी की आँखों में
नौकरीपेशा लड़कियों की धनक से खुलता है
शहर गाजे-बाजे और लाल बत्तियों के परेडों से नहीं
रिक्शे की ट्रिंग-ट्रिंग
और दूध के कनस्तरों की उठा-पटक से खुलता है
शहर रेलयात्रियों के आगमन से खुलता है
उनके आँखों में बसी थकान से खुलता है
शहर खुलता है खण्डहरों में टपकी ओस से
जहाँ प्रेमी-युगल पाते हैं थोड़ी-सी शरण
शहर खुलता है गंदे सीवरों में उतरते आदमीनुमा मज़दूर से
शहर भिखमंगों के कासे में खुलता है;
पहले सिक्के की खनक से
शहर खुलता है एक नए षड्यंत्र से
जो सफ़ेदपोशों की गुप्त-बैठकों में आकार लेता है
शहर खुलता है एक मृतक से
जो इस लोकतंत्र में बेनाम लाश की तरह
शहर के अँधेरों में पड़ा होता है
शहर खुलता है पान की थूकों से
उबलती चाय की गंध से
शहर खुलता है एक कवि की धुएँ से भरी आँखों में
जिसमें एक स्वप्न की चिता
अभी-अभी जलकर राख हुई होती है…
ठिठुरते लैम्प पोस्ट
वे चाहते तो सीधे भी खड़े रह सकते थे
लेकिन आदमियों की बस्ती में रहते हुए
उन्होंने सीख ली थी अतिशय विनम्रता
और झुक गए थे सड़कों पर
आदमियों के पास, उन्हें देखने के अलग-अलग नज़रिए थे—
मसलन, किसी को वे लगते थे बिल्कुल संत सरीखे
दृढ़ और एक टांग पर योग मुद्रा में खड़े
किसी को वे शहंशाह के इस्तक़बाल में
क़तारबन्द खड़े सिपाहियों-से लगते थे
किसी को विशाल पक्षियों-से
जो लम्बी उड़ान के बाद थककर सुस्ता रहे थे
लेकिन एक बच्चे को वे लगते थे उस बुढ़िया-से
जिसकी अठन्नी गिरकर खो गई थी; जिसे वो ढूँढ रही थी
जबकि किसी को वे सड़क की दिल में धँसे
सलीब की तरह लगते थे
आदमियों की दुनिया में वे रहस्य की तरह थे
वे काली ख़ूनी रातों के गवाह थे
शराबियों की मोटी पेशाब की धार और उल्टियों के भी
जिस दिन हमारे भीतर
लगातार चलती रही रेत की आँधी
जिसमें बनते और मिटते रहे
कई धूसर शहर
उस रोज़ मैंने देखा
ख़ौफ़नाक चीख़ती सड़कों पर
झुके हुए थे
बुझे हुए
ठिठुरते लैम्प पोस्ट…
अपने गाँव को याद करते हुए
जब मुल्क की हवाओं में
चौतरफ़ा ज़हर घोला जा रहा है
ठीक उसी बीच मेरे गाँव में
अनगिनत ग़ैर-मुस्लिम माँएँ
हर शाम वक़्त-ए-मग़रिब
चली आ रही हैं अपने नौनिहालों के साथ
मस्जिद की सीढ़ियों पर
अपने हाथ में पानी से भरे गिलास और बोतलें थामे
अपने बच्चों को कलेजे से चिमटाए
इमाम की क़िरअत पर कान धरे
अरबी आयतों के जादू को
भीतर तक सोखती हुई
नमाज़ ख़त्म होने का इंतज़ार है उन्हें
कि नमाज़ियों का जत्था
बाहर निकले
और चंद आयतें पढ़कर
उनके पानी को दम कर दे
और उनके लाडलों-लाडलियों पर
कुछ बुदबुदाकर
हाथ फेर दे
कुछ को ज़्यादा भरोसा है
खिचड़ी दाढ़ी वाले इमाम साहिब पर
मैं सोचता हूँ बारहा
कि ये मुसलमानों का ख़ुदा
इनकी मुरादें क्यूँ पूरी करता आ रहा है सदियों से?
मुझे इनकी आस्था में कम
इनके भरोसे में ज़्यादा यक़ीन है
यही मेरा हिन्दोस्तान है
इसे किस कमबख़्त की
नज़र लग गई!
मग़रिब
मुअज़्ज़िन की काँपती आवाज़ में
धुल गई शाम की बोझिल क़बा
मस्जिद की मीनार
कुछ और ऊपर उठती हुई
मवेशी लौट आए अपने-अपने खूँटों पर
लालटेनों के शीशे
पोंछकर साफ़ किए जाने लगे
झुर-झुर बहने लगी पुरवईया
सिलवट से उठकर मसाले की गंध
घर-भर में फैल गई
सूँ-सूँ कर जलने लगीं कुछ गीली लकड़ियाँ
चूल्हों पर डेगचियाँ चढ़ने लगीं
और खदबद-खदबद कुछ पकने लगा
मवेशियों के खूँटों से उठता धुआँ
पूरे माहौल में फैल गया
रफ़्तार ने ली एक झपकी
मग़रिब की नमाज़ का वक़्त हो चुका।
सन् 1992
जब मैं पैदा हुआ
अयोध्या में ढहाई जा चुकी थी
एक क़दीम मुग़लिया मस्जिद
जिसका नाम बाबरी मस्जिद था
ये एक महान सदी के अंत की
सबसे भयानक घटना थी
कहते हैं, पहले मस्जिद का एक गुम्बद
धम्म् की आवाज़ के साथ
ज़मीन पर गिरा था
और फिर दूसरा और फिर तीसरा
और फिर गिरने का
जैसे अनवरत् क्रम ही शुरू हो गया
पहले कीचड़ में सूरज गिरा
और मस्जिद की नींव से उठता ग़ुबार
और काले धुएँ में लिपटा अंधकार
पूरे मुल्क पर छाता चला गया
फिर नाली में हाजी हश्मतुल्लाह की टोपी गिरी
सकीना के गर्भ से अजन्मा बच्चा गिरा
हाथ से धागे गिरे
रामनामी गमछे गिरे
खड़ाऊँ गिरे
बच्चों की पतंगे और खिलौने गिरे
बच्चों के मुलायम स्वप्नों से परियाँ
चीख़ती हुई निकलकर भागीं
और दंतकथाओं और लोककथाओं के नायक
चुपचाप निर्वासित हुए
एक के बाद एक
फिर गाँव के मचान गिरे
शहरों के आसमान गिरे
बम और बारूद गिरे
भाले और तलवारें गिरीं
गाँव का बूढ़ा बरगद गिरा
एक चिड़िया का कच्चा घोंसला गिरा
गाढ़ा गरम ख़ून गिरा
गंगा-जमुनी तहज़ीब गिरी
नेता-परेता गिरे
सियासत गिरी
और इस तरह
एक के बाद एक
नामालूम कितना कुछ
भरभराकर गिरता ही चला गया
“जो गिरा था
वो शायद एक इमारत से काफ़ी बड़ा था”—
कहते-कहते अब्बा की आवाज़ भर्राती है
और गला रुँधने लगता है
इस बार पासबाँ नहीं मिले काबे को
सनमख़ाने से
और एक सदियों से मुसलसल खड़ी मस्जिद
देखते-देखते
मलबे का ढेर बनती चली गई
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर
हाँ, उसी हिन्द पर
जिसकी सरज़मीं से मीर-ए-अरब को
ठण्डी हवाएँ आती थीं
वे कहाँ हैं?
मैं उनसे पूछना चाहता हूँ
कि और कितने सालों तक गिरती रहेगी
ये नामुराद मस्जिद
जिसका नाम बाबरी मस्जिद है
और जो मेरे गाँव में नहीं
बल्कि दूर अयोध्या में है
मेरे मुल्क के रहबरों और ज़िंदा बाशिंदों
बतलाओ मुझे
कि वो क्या चीज़ है
जो इस मुल्क के हर मुसलमान के भीतर
एक ख़फ़ीफ़ आवाज़ में
न जाने कितने बरसों से मुसलसल गिर रही है
जिसके ध्वंस की आवाज़
अब सिर्फ़ स्वप्न में ही सुनायी देती है।
मेरी दुनिया की तमाम बच्चे
वो जमा होंगे एक दिन और खेलेंगे एक साथ मिलकर
वो साफ़-सुथरी दीवारों पर
पेंसिल की नोक रगड़ेंगे
वो कुत्तों से बतियाएँगे
और बकरियों से
और हरे टिड्डों से
और चीटियों से भी…
वो दौड़ेंगे बेतहाशा
हवा और धूप की मुसलसल निगरानी में
और धरती धीरे-धीरे
और फैलती चली जाएगी
उनके पैरों के पास…
देखना!
वो तुम्हारी टैंकों में बालू भर देंगे
और तुम्हारी बन्दूक़ों को
मिट्टी में गहरा दबा देंगे
वो सड़कों पर गड्ढे खोदेंगे और पानी भर देंगे
और पानियों में छपा-छप लोटेंगे…
वो प्यार करेंगे एक दिन उन सबसे
जिससे तुमने उन्हें नफ़रत करना सिखाया है
वो तुम्हारी दीवारों में
छेद कर देंगे एक दिन
और आर-पार देखने की कोशिश करेंगे
वो सहसा चीख़ेंगे!
और कहेंगे—
“देखो! उस पार भी मौसम हमारे यहाँ जैसा ही है”
वो हवा और धूप को अपने गालों के गिर्द
महसूस करना चाहेंगे
और तुम उस दिन उन्हें नहीं रोक पाओगे!
एक दिन तुम्हारे महफ़ूज़ घरों से बच्चे बाहर निकल आएँगे
और पेड़ों पे घोंसले बनाएँगे
उन्हें गिलहरियाँ काफ़ी पसन्द हैं
वो उनके साथ बड़ा होना चाहेंगे…
तुम देखोगे जब वो हर चीज़ उलट-पुलट देंगे
उसे और सुन्दर बनाने के लिए…
एक दिन मेरी दुनिया के तमाम बच्चे
चीटियों, कीटों
नदियों, पहाड़ों, समुद्रों
और तमाम वनस्पतियों के साथ मिलकर धावा बोलेंगे
और तुम्हारी बनायी हर चीज़ को
खिलौना बना देंगे…
शरद की साँझ
फूल हाथों में उठाये कनेर के
मुस्कान धारे मुख कमल पे
ओट ले अपने नयन के
झिलमिलाते कंप में अपनी लगन के
पीत वर्णी, संदली साँसों की छाया
पड़ गई नदी के शफ़्फ़ाफ़ आईने में
फूल के नाज़ुक वसन में
भर लिया उसने सुनहला गंध
संध्या का
नदी की ताक़ से।
नये कविता संग्रह 'खोई चीज़ों का शोक' से कविताएँ