काव्य-संकलन: ‘वर्षा में भीगकर’
प्रकाशन: किताबघर प्रकाशन
सुबह दे दो
मुझे मेरी सुबह दे दो
सुबह से कम कुछ भी नहीं
सूरज से अलग कुछ भी नहीं
लाल गर्म सूरज
जोंक और मकोड़ों को जलाता हुआ
सुबह से कम कुछ भी नहीं।
आँख-भर
आँख-भर देखा कहाँ!
जी-भर पिया कहाँ!
घाटी को
धानी खेत
लहराती नदी
कि पुल से
गुज़र गई रेल…
कैरम बोर्ड
काली और सफ़ेद गोट
हमेशा लड़ती नहीं रहेंगी
अलग-अलग नहीं रहेंगी
‘क्वीन’ का साम्राज्य डूबेगा
चार पॉकेटों के समुद्र में
लाशें नहीं उतराएँगी
काली और सफ़ेद।
बीज
मैं आदिम अंधेरे में
बीज की तरह
सुगबुगाना चाहता हूँ,
आकाश और पृथ्वी से बाहर
माँ के गर्भ में
एक बूँद की तरह
आँख मलना चाहता हूँ,
मैं एक महान नींद से
भयंकर आनन्द और
विस्मय में जगना चाहता हूँ।
पहाड़
यहाँ से वहाँ
विराट आलस में बिछा
महान अजगर
करवट तक नहीं लेता वह
गले में बाँह डाल
पहाड़ से लिपट लटक
क्या करता बादल!
इब्बार रब्बी की कविता 'दिल्ली की बसों में'