रुग्ण पिताजी

रात नहीं कटती? लम्‍बी, यह बेहद लम्‍बी लगती है?
इसी रात में दस-दस बारी मरना है, जीना है
इसी रात में खोना-पाना-सोना-सीना है
ज़ख़्म इसी में फिर-फिर कितने खुलते जाने हैं
कभी मिले थे औचक जो सुख, वे भी तो पाने हैं

पिता डरें मत, डरें नहीं, वरना मैं भी डर जाऊँगा
तीन दवाइयाँ, दो इंजेक्‍शन अभी मुझे लाने हैं!

शव पिताजी

चार दिन की दाढ़ी बढ़ी हुई है
उस निष्‍प्राण चेहरे पर
कुछ देर में वह भी जल जाएगी
पता नहीं क्‍यों और किसने लगा दिये हैं
नथुनों पर रूई के फाहे
मेरा दम घुट रहा है

बर्फ़ की सिल्‍ली से बहते पानी से लथपथ है दरी
फ़र्श लथपथ है
मगर कमरा ठण्‍डा हो गया है
कर्मठ बंधु-बांधव तो बाहर लू में ही
आगे के सरंजाम में लगे हैं
मैं बैठा हूँ या खड़ा हूँ या सोच रहा हूँ
या सोच नहीं रहा हूँ
य र ल व श श व ल र य
ऐसी कठिन उलटबाँसी जीवन और शव की…

ख़त्म पिताजी

पिता आग थे कभी, धुआं थे कभी, कभी जल भी थे
कभी अँधेरे में रोती पछताती एक बिलारी
कभी नृसिंह, कभी थे ख़ाली शीशी एक दवा की
और कभी हँसते-हँसते बेदम हो पाता पागल
शीश पटकता पेड़ों पर, सुनसान पहाड़ी वन में

अभी आग हैं
अभी धुआँ हैं
अभी ख़ाक हैं

स्मृति-पिता

एक शून्‍य की परछाईं के भीतर
घूमता है एक और शून्‍य
पहिये की तरह
मगर कहीं न जाता हुआ

फिरकी के भीतर घूमती
एक और फिरकी
शैशव के किसी मेले की!

***

साभार: किताब: स्याही ताल | लेखक: वीरेन डंगवाल | प्रकाशक: अंतिका प्रकाशन

वीरेन डंगवाल की कविता 'इतने भले नहीं बन जाना'

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वीरेन डंगवाल
वीरेन डंगवाल (५ अगस्त १९४७ - २८ सितंबर २०१५) साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत हिन्दी कवि थे। बाईस साल की उम्र में उन्होनें पहली रचना, एक कविता, लिखी और फिर देश की तमाम स्तरीय साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में लगातार छपते रहे। उन्होनें १९७०-७५ के बीच ही हिन्दी जगत में खासी शोहरत हासिल कर ली थी। विश्व-कविता से उन्होंने पाब्लो नेरूदा, बर्टोल्ट ब्रेख्त, वास्को पोपा, मीरोस्लाव होलुब, तदेऊश रोजेविच और नाज़िम हिकमत के अपनी विशिष्ट शैली में कुछ दुर्लभ अनुवाद भी किए हैं। उनकी ख़ुद की कविताओं का भाषान्तर बाँग्ला, मराठी, पंजाबी, अंग्रेज़ी, मलयालम और उड़िया जैसी भाषाओं में प्रकाशित हुआ है।