हमारे समाज में सदियों से एक स्त्री को लेकर आम जन की अवधारणाएं और अपेक्षाएं एक कुंठित सोच से घिरी रही हैं। पुरुष वर्ग के द्वारा स्त्री वर्ग की भावनाओं और अधिकारों की अनदेखी हुई है। लगातार, बार-बार। इसके बीच एक समानांतर विरोध भी साथ चला है, जिसमें समय-समय पर नए मुख नया दृष्टिकोण लेकर नए ढंग से कहते आए हैं कि जो चलता आ रहा है, अब नहीं चलेगा। कौन कितना प्रभावी रहा, या कब पर्याप्त कहा जा चुका होगा, यह कहना मुश्किल है। इसलिए तब तक जो कहा जाए, उसका स्वागत किया जाए, तो बेहतर!

आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर पोषम पा पर प्रस्तुत हैं ऐसे ही कुछ नए दृष्टिकोण, कविताओं में। आपके पास भी कुछ कहने को हो, तो साझा करिएगा।

‘औरत की बात’ – विवेक चतुर्वेदी

लड़की नाचती है तो थोड़ी सी तेज हो जाती है धरती की चाल

औरत टाँक रही है बच्चे के अँगरखे पर सुनहरा गोट
तो तेज हो चली है सूरज की आग

बुढ़िया ढार रही है तुलसी के बिरवे पर पानी
तो और हरे हो चले हैं सारे जंगल

पेट में बच्चा लिए प्राग इतिहास की गुफा में
बैठी औरत
बस बाहर देख रही है
और खेत के खेत सुनहरे
गेहूँ के ढेर में बदलते जा रहे हैं।


‘औरतें’ – शुभा

औरतें मिट्टी के खिलौने बनाती हैं
मिट्टी के चूल्हे
और झाँपी बनाती हैं

औरतें मिट्टी से घर लीपती हैं
मिट्टी के रंग के कपड़े पहनती हैं
और मिट्टी की तरह गहन होती हैं

औरतें इच्छाएँ पैदा करती हैं और
ज़मीन में गाड़ देती हैं

औरतों की इच्छाएँ
बहुत दिनों में फलती हैं..


‘घरेलू औरत’ – दीपिका केशरी

शाम की चाय के साथ
घरेलू औरतें उबालती है अपनी थकान
फिर कितने सलीके खुद को समेट कर
करीने से माहताब की रोशनी में ढ़ल आती है
कि कोई यकायक देखें तो कह उठे
कितनी आफताबी हो तुम!
पर उसका घरेलू आदमी इसके विपरीत ये कहता है
कि तुम दिन भर करती क्या हो !


‘बेलगाम स्त्री को विदाई’ – लोरना गूडिसन

(अनुवाद – यादवेन्द्र)

मैंने जान-बूझकर दूरी बनाए रखी
उस बेलगाम स्त्री और ख़ुद के बीच
क्योंकि उस पर ठप्पा लगा हुआ था चाल-चलन ठीक न होने का

हरदम वह लालच देकर बुलाती
आकर साथ शराब के घूँट लेने को
रक्तिम शराब और वह भी मिट्टी के भाण्ड में
फिर दुबले-पतले अश्वेत मर्दों के झूठे वायदों और झाँसों के आगे
घुटने टेक समर्पण कर देने को

ऐसा भी होता है कई बार
जब मैं रात में जल्दी बन्द करने लगती हूँ घर
और इतराने लगती हूँ अपनी शुचिता पर
कि एक और दिन जी लिया मैंने बगैर मुँह लटकाए, उदास हुए
तभी वह दिख जाती है अड़हुल के पीछे खड़ी हुई
फूलों के लाल रंग को मात करते लाल परिधान में
बिल्ली की आँखों सरीखी अँगूठी में बँधी चाभियाँ अल्हड़ता से घुमाती
और मुझे ललचाती आवाज़ देती
कि घर से बाहर निकलो
आओ, चलते हैं कहीं मस्ती करने…


‘बुरी लड़कियाँ, अच्छी लड़कियाँ’ – गीत चतुर्वेदी

साँप पालने वाली लड़की साँप काटे से मरती है
गले में खिलौना आला लगा डॉक्टर बनने का स्वांग करती लड़की
ग़लत दवा की चार बूँदें ज़्यादा पीने से
चिट्ठियों में धँसी लड़की उसकी लपट से मर जाती है
और पानी में छप्-छप् करने वाली उसमें डूब कर
जो ज़ोर से उछलती है वह अपने उछलने से मर जाती है
जो गुमसुम रहती है वह गुमसुम होने से
जिसके सिर पर ताज रखा वह उसके वज़न से
जिसके माथे पर ज़हीन लिखा वह उसके ज़हर से
जो लोकल में चढ़ काम पर जाती है वह लोकल में
जो घर में बैठ भिंडी काटती है वह घर में ही
दुनिया में खुलने वाली सुरंग में घुसती है जो
वह दुनिया में पहुँचने से पहले ही मर जाती है
बुरी लड़कियाँ मर कर नर्क में जाती हैं
और अच्छी लड़कियाँ भी स्वर्ग नहीं जातीं..


‘ईश्वर नहीं नींद चाहिए’ – अनुराधा सिंह

औरतों को ईश्वर नहीं
आशिक़ नहीं
रूखे फ़ीके लोग चाहिए आस पास
जो लेटते ही बत्ती बुझा दें अनायास
चादर ओढ़ लें सर तक
नाक बजाने लगें तुरंत

नज़दीक मत जाना
बसों ट्रामों और कुर्सियों में बैठी औरतों के
उन्हें तुम्हारी नहीं
नींद की ज़रूरत है

उनकी नींद टूट गयी है सृष्टि के आरम्भ से
कंदराओं और अट्टालिकाओं में जाग रहीं हैं वे
कि उनकी आँख लगते ही
पुरुष शिकार न हो जाएँ
बनैले पशुओं/ इंसानी घातों के
जूझती रही यौवन में नींद
बुढ़ापे में अनिद्रा से

नींद ही वह कीमत है
जो उन्होंने प्रेम परिणय संतति
कुछ भी पाने के एवज़ में चुकायी

सोने दो उन्हें पीठ फेर आज की रात
आज साथ भर दुलार से पहले
आँख भर नींद चाहिए उन्हें।


‘ओ, नारी!’ – दूधनाथ सिंह

मैं तुम्हारी पीठ पर बैठा हुआ घाव हूँ
जो तुम्हें दिखेगा नहीं
मैं तुम्हारी कोमल कलाई पर उगी हुई धूप हूँ
अतिरिक्त उजाला – ज़रूरत नहीं जिसकी
मैं तुम्हारी ठोढ़ी के बिल्कुल पास
चुपचाप सोया हुआ भरम हूँ साँवला
मर्म हूँ दर्पण में अमूर्त हुआ
उपरला होंठ हूँ खुलता हँसी की पंखुरियों में
एक बरबस झाँकते मोती के दर्शन कराता
कानों में बजता हुआ चुम्बन हूँ
उँगलियों की आँच हूँ
लपट हूँ तुम्हारी
वज्रासन तुम्हारा हूँ पृथ्वी पर
तपता झनझनाता क्षतिग्रस्त
मातृत्व हूँ तुम्हारा
हिचकोले लेती हँसी हूँ तुम्हारी
पर्दा हूँ बँधा हुआ
हुक् हूँ पीठ पर
दुख हूँ सधा हुआ
अमृत-घट रहट हूँ
बाहर उलीच रहा सारा
सुख हूँ तुम्हारा
गौरव हूँ रौरव हूँ
करुण-कठिन दिनों का
गर्भ हूँ गिरा हुआ
देवता-दैत्य हूँ नाशवान
मर्त्य असंसारी धुन हूँ
अनसुनी । नींद हूँ
तुम्हारी
ओ, नारी !


चित्र श्रेय: Igor Ovsyannykov

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